लेखक द्वारा लिखी गई भूमिका
भूमिका
दुनिया के किसी भी देश में सरकार के संचालन की प्रकृति लोकतांत्रिक, पूंजीवादी, तानाशाही या साम्राज्यवादी, कैसे भी क्यों न हो, केवल सिविल सर्विस ही एक ऐसा माध्यम होता है, जिसके द्वारा सरकारी नीतियों को क्रियान्वयन किया जा सकता है। सरकार के प्रशासन की सफलता सिविल सर्विस की दक्षता, प्रतिबद्धता, ईमानदारी तथा अनुशासन पर निर्भर करती है।जब हमारा देश अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुआ तो हमें उच्चतम स्तर की इंडियन सिविल सर्विस विरासत में प्राप्त हुई।तब ब्रिटिश साम्राज्य का सम्पूर्ण महल इसी इंडियन सिविल सर्विस की मजबूत नींव पर टिका हुआ था।इस सर्विस के मुट्ठी भर अधिकारी अपनी विशिष्ट योग्यता और दक्षता के आधार पर भारत के विस्तृत, भू भाग फैले विशाल ब्रिटिश साम्राज्य का शासन चलाते थे।यह दूसरी बात है कि उन अधिकारियों की नियुक्ति और प्रशिक्षण औपनिवेशिक सरकार ने किया, मगर इस सर्विस के अधिकारियों की ईमानदारी और कर्मनिष्ठा के बारे में रत्तीभर संदेह नहीं था।
देश आजाद होने के बाद राजनैतिक व्यवस्था बदल गई।
इंडियन नेशनल कांग्रेस के नेताओं में आजाद भारत कि प्रशासनिक व्यवस्था को लेकर
गहरे मतभेद थे। जवाहर लाल नेहरू इंडियन सिविल सर्विस को लेकर पूरी सशंकित थे। वे
इसे न तो इंडियन मानते थे और न ही सिविल और सर्विस तो बिलकुल भी नहीँ। इस प्रकार
इंडियन सिविल सर्विस में तीनों शब्द (इंडियन, सिविल और सर्विस) से उन्हें पूरी तरह एलर्जी थी। मगर
सरदार वल्लभ भाई पटेल ने ईमानदार और निष्पक्ष स्वतंत्र सिविल सर्विस कि महत्ता को
समझा और खुले कंठ से यह कहते हुए सराहना की यह सर्विस आगे जाकर राष्ट्र के निर्माण
में एक महत्ती भूमिका अदा करेगी। सरदार वल्लभ भाई पटेल स्वतंत्र भारत के पहले
गृहमंत्री थे। उन्होंने उस समय राजे
रजवाड़े,रियासतों के राष्ट्र में
विलयीकरण, भारत-पाक बँटवारे के समय पैदा हुई कानून- व्यवस्था और शरणार्थियों
की समस्याओं के समाधान में सिविल सर्विस की योग्यता को
नजदीकी से परखा था। उन्हें इस बात का
अडिग विश्वास था कि वफादार
और योग्य सिविल सर्विस देश के
नव-निर्माण के लिए आवश्यक है।इसलिए उन्होंने भारत के संविधान में सिविल सर्विस के अधिकारियों की
रक्षा के लिए कई ऐसे प्रावधान रखें, जिससे कि राजनेता अपनी आकांक्षाओं और तुनक-मिजाजी से उन्हें किसी तरह क्षति न पहुंचा सके।
पटेल जैसी दूरदर्शिता तत्कालीन राजनेताओं में बहुत कम
थी। यही मुख्य कारण है आज भारत का समूचा राजनैतिक तंत्र भ्रष्टाचार की चपेट में
हैं। निडर और निष्पक्ष प्रशासनिक अधिकारी राजनेताओं को बिलकुल नहीँ
सुहाते। राजनेताओं की सोच अलग होती है, प्रशासनिक
अधिकारियों की अलग। इस वैचारिक मतभेद के कारण खरे तथा सही प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं के बीच संबंध बिगड़ गए हैं। या तो पूरी
तरह से प्रतिकूल हो गए है या फिर एकदम साँठ-गाँठ वाले। कई प्रशासनिक अधिकारी तो
वर्तमान राजनैतिक प्रणाली के ढाँचे में पूरी तरह से ढल गए हैं, जिसकी वजह से भारत का प्रशासन बुरी तरह से
प्रभावित हुआ है। जिन मूल्यों की अनुरक्षणता के लिए सरदार पटेल ने
आजीवन संघर्ष किया, आधुनिक भारत के राजनेताओं और अधिकारियों ने उनके उस संघर्ष पर पूरी तरह पानी फेर दिया। सही बात
कहने वाले अधिकारी ‘खराब’ कहलाने लगे। उनका अकारण इधर–उधर ट्रान्सफर किया जाने लगा या फिर उन्हें निरथर्क
काम दिये जाने लगे। इससे भी ज्यादा तो और बदतर क्या होता कि अपने निजी
स्वार्थों के खातिर कर्तव्यनिष्ठ अधिकारियों का बार-बार स्थानांतरण किया जाने लगा है। छोटे-छोटे
तुच्छ कारणों के आधार पर उनके खिलाफ जाँच शुरू की जाती है। इन सारी
बातों से आज देश का हर नागरिक परिचित है।
मैं इन मोनोग्राफ के माध्यम से अपने अनुभव आपके सामने
रखना चाहता हूँ।ये अनुभव मैंने केंद्र ओर राज्य सरकार में काम करते हुए अर्जित
किए। कुछ उदाहरण प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार से संबंधित है तो कुछ उदाहरणों
में ऐसी घटनाओं का उल्लेख है जिसमें राजनैतिक ओर प्रशासनिक अधिकारियों के बीच में
विस्फोटक टकराव पैदा होता है। टकराव के कारण? प्रशासनिक अधिकारी निष्पक्ष एवं सही निर्णय लेना
चाहते हैं। मगर राजनेता उन्हें लेने नहीं
देते हैं। तो फिर टकराव पैदा
नहीँ नहीँ होगा तो फिर क्या होगा? माहौल पूरी
तरह से अशांत और विक्षुब्ध हो गया
है और जिसका खामियाजा
प्रशासनिक अधिकारी को ही भुगतना पड़ता है। अधिकारियों के लिए तो आचार संहिता बनी हुई है, मगर
राजनेताओं के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है।मेरे जीवन में भी कई बार ऐसी परिस्थितियाँ और संकट आए। मैं इसे अपनी ताकत कहूँ या कमजोरी, कह नहीँ सकता, जब मेरी आत्मा कहती है कि मैं सही
हूँ तो फिर कभी झुकता नहीँ हूँ। आने वाले सारे खतरों को झेलने के लिए तैयार हो
जाता हूँ। इतना कुछ होने के बावजूद मैं उसे अपनी किस्मत ही समझूँगा। न तो मैं
कभी दंडित हुआ और न ही अनर्थक कार्यों के लिए निर्वासित।
यह हो सकता है कि
आंध्रप्रदेश का राजनैतिक नेतृत्व थोड़ा बेहतर रहा है।मैं अपने
आप को भाग्यशाली मानता हूँ कि कोयला मंत्रालय में मुझे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी का पूर्ण सहयोग मिला। उन्होंने मुझे अपना काम करने के लिए पूरी स्वतंत्रता दे रखी थी। मैंने कभी भी उसका अनुचित फायदा नहीँ उठाया वरन कोल इंडिया की गतिविधियों में पारदर्शिता लाने के लिए अथक प्रयास
करता रहा।
भारत में प्रशासन क्यों गड़बड़ा रहा है? सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार से ही प्रशासन की अधिकांश बीमारियाँ पैदा हो रही है। नीचे तबके में तो छोटा–मोटा भ्रष्टाचार हमेशा रहा ही है ,राजनेताओं में भ्रष्टाचार स्वतन्त्रता के बाद तीव्र
गति से पनपने लगा,फिर धीरे-धीरे
यह सिविल सर्विस में पहुँचा।
अब भ्रष्टाचार कैसे रोका जाये? बीमारी पूरी तरह से फैल चुकी थी, सरकार के पास अब उसका निदान कहाँ? अब तो कभी–कभी ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार को रोकना असंभव है, देश के चुनाव और समूचा राजनैतिक तंत्र तो अवैध धन पर
निर्भर करता है। ऐसा लगता है चुने गए जन-प्रतिनिधियों के पास भ्रष्टाचार में लिप्त
होने के सिवाय और कोई चारा भी है। चुनाव लड़ने हैं, पैसा चाहिए। पैसा आयेगा कहां से? कहीँ से भी आये? तब भ्रष्टाचार को छोड़कर पैसे कमाने का स्रोत क्या बच
जाता है? अनेक ऐसे ज्वलंत ज्वलंत उदाहरण है। सरकारी संस्थानो एवं कंपनियों के उच्च अधिकारियों के
चयन एवं नियुक्तियाँ पूरी तरह भ्रष्टाचार
पर आधारित हैं।कोल-इंडिया
के चयन एवं नियुक्ति के दौरान राजनेताओं द्वारा उन्हें ब्लैक मेल किए जाने का मैं
स्वयं प्रत्यक्ष साक्षी रहा हूँ। जब उच्च पदों की नियुक्ति रिश्वत के पैसों से होती है तो क्या आप उम्मीद कर सकते है कि ये लोग अपने–अपने आर्गनाइजेशन में भ्रष्टाचार को रोकने का प्रयास
करेंगे? जब पैसे देकर नियुक्ति हुई
है तो उन पैसों को ब्याज सहित निकालने के लिए भ्रष्टाचार को और बढ़ावा देंगे।
हमारा देश विश्व की तेजी से बढ़ती हुई इकॉनोमी में से
एक है। प्रोजेक्शन के कुछ आकड़ों की मानें तो 2050 तक हमारा देश विश्व की एक नंबर की इकॉनोमी बन
जायेगा। इस तेज रफ्तार वाली इकॉनोमी की कुछ मूलभूत आवश्यकताएँ भी तो होगी! ऊर्जा
की आवश्यकता भी उतनी ही ज्यादा होगी। आखिर यह ऊर्जा आएगी कहाँ से?
भारत में बिजली के उत्पादन का दो तिहाई हिस्सा कोयले
से होता है। हमारा देश दुनिया में कोल रिजर्व और उत्पादन के हिसाब से शीर्ष राष्ट्रों में आता है। आने
वाले कई दशकों तक देश के ऊर्जा का मुख्य
स्त्रोत कोयला बना रहेगा। इसलिये भारत के विकास में कोयला नीति और इसका
कार्यान्वयन ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।जिस तरीके से कोयले के ब्लॉक प्राइवेट
कंपनियों को आबंटित किये गये, वह तरीका
सबसे ज्यादा विवादास्पद रहा। मीडिया ने इसे ‘कोलगेट’ का नाम दिया। राष्ट्र की इस प्राकृतिक सम्पदा के
आवंटन के खुली बोली वाली पारदर्शी
विधि का प्रस्ताव मैंने सन 2004 में दिया था। मगर आज तक क्रियान्वित नहीं हो सका। यह समझने के लिए ज्यादा
बुद्धि की जरूरत नहीं थी कि खुली बोली वाली पारदर्शी प्रणाली को क्रियान्वित करने
में आठ वर्षों से ज्यादा का समय क्यों लगा? कारण बिलकुल स्पष्ट है कि हमारे देश के समूचे
राजनैतिक वर्ग ने इसे कुचलने का प्रयास किया।क्या राजनेता हमारे देश का विकास
चाहते हैं? अगर चाहते तो आवंटन के पारदर्शी तरीकों को अपनाने में उन्हें इतनी गुरेज
क्यों? अगर पारदर्शी तरीके लागू हो
जाये तो उन्हें मिलेगा क्या? यह वर्ग देश
के विकास के लिए ज्यादा चिंतित नहीं है। उन्हें अपने और अपने परिवार वालों की
ज्यादा चिंता है। हमारे देश का संविधान कहता है कि देश के सारे नागरिक बराबर हैं।
नियम कानून सब पर समान रूप से लागू होते है। कानून की दृष्टि में
अमीर-गरीब में कोई भेदभाव नहीं है, सभी बराबर है। मगर सरकार की कार्य प्रणाली तो विचित्र
है। मनमर्जी से अपने निर्णय लेती है। कई बार तो ऐसा लगता है कि राजनेता बनने का
मतलब वे दूसरे नागरिकों से श्रेष्ठ हैं और जब वे अपना निर्णय लेते हैं तो उन
निर्णयों में ‘कारण’, ‘सिद्धांत’, और ‘सत्यनिष्ठा’ और ‘सर्विस’ जैसे पुनीत शब्द समान्यतया अनुपस्थित ही रहते हैं। चरित्र और सिद्धांतवाद धरा का धरा रह जाता
हैं। प्रशासन के पवित्र सिद्धांतों और नियम–कानून को ताक पर रखकर उन की धज्जियाँ
उड़ाई जाती हैं। नियम कानून की जब बात चली है तो यह कहते हुए भी दुःख लगता है कि
हमारी न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार व्याप्त हो गया है,, इस वजह से घोंघे की चाल से रेंगती
है हमारी न्याय-प्रणाली। ‘विधि का नियम’ हमारे ऊपर लागू होना बंद हो गया है। हमारे देश की
तबाही का मुख्य कारण हमारे देश का ‘अंधा-कानून’ भी है। बीच-बीच में गलत को ठीक करने के लिए कई बार
प्रयास किये गए। उदाहरण के तौर पर सीबीआई का निर्माण हुआ,, भ्रष्टाचार निरोधक कानून पास किया गया और ज्यादा से
ज्यादा शक्तियों के साथ लोकपालों की नियुक्ति किये जाने का प्रस्ताव हैं। मैं
मानता हूँ ये सारे कदम महत्त्वपूर्ण है, मगर समस्याओं की जड़ तक नहीँ जा रहे हैं। केवल
समस्याओं की ऊपरी सतह को ही स्पर्श कर रहे हैं। सभी का केंद्र बिंदु ‘विधि के नियम’ (रूल ऑफ़ लॉ) की स्थापना करना है। अगर यह केंद्र बिंदु
स्थापित नहीँ हो पाता है तो उसके बिना नई संस्थाएँ और कानून बनाना अंधे को दर्पण
दिखाने के तुल्य है। यह महज एक दिखावा होगा,जो हमारे देश को अच्छा प्रशासन नहीं दे सकेगा।
आखिरकार इन सारी समस्याओं के समाधान के लिए हमारी निगाहें अपलक सिविल सर्विस की ओर देखने लगती है, जिसकी क्रेडिबिलिटी पर पूरी
तरह से विश्वास खत्म हो गया है। इस समय हमारे देश को जरूरत है व्यापक सुधारो की।
राजनैतिक,प्रशासनिक, न्यायिक और चुनाव संबंधित सुधार। इसके अतिरिक्त,देश की सारी एजेन्सियों पर आचार संहिता लागू होनी
चाहिए।
लालच और भ्रष्टाचार ने हमारे देशवासियों में इतना
क्रोध भड़काया कि यहाँ चुनाव संबंधित राजनीति पूरी तरह से प्रभावित होती हुई नजर
आती है।राजनैतिक पार्टियों पर से
विश्वास खत्म हो गया है। आम आदमी पार्टी ने यह साबित कर दिया है कि बिना अवैध धन के
चुनाव जीते जा सकते है। अगर ऐसा होता है तो भारत में राजनैतिक नेताओं का नया बीज पैदा होगा, ईमानदारी और स्वतंत्रता पर आधारित सिविल सर्विस को
सम्मान की दृष्टि से देखेंगे और हम ऐसे एक नये युग में प्रवेश करेंगे, जहां प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं के बीच
स्वस्थ और सौहार्द्रपूर्ण संबंध पैदा होंगे। अच्छे प्रशासन के लिए यही एक
अपरिहार्य शर्त है।
-- प्रकाश चन्द्र पारख
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