20.सुप्रीम कोर्ट,सीबीआई और कोलगेट

20.सुप्रीम कोर्ट,सीबीआई और कोलगेट

जैसे ही कोल ब्लॉक आवंटन पर सीएजी की रिपोर्ट प्रकाशित हुई, तो देश में मानो भूचाल-सा आ गया। इतना बड़ा घोटाला? लोगों की कल्पना से भी परे था। लोग टेलीविजन की चैनलों पर यह खबर सुनकर दाँतों तले अंगुली दबाने लगे। सही में, सबसे बड़ा घोटाला-कोलगेट ? 1.86 लाख करोड़ रुपये का घोटाला। जनहित याचिकाएँ दर्ज की गई। सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को जाँच-पड़ताल करने के निर्देश दिए। सन 1993 में जब  कोल माइंस नेशनलाइजेशन एक्ट में प्राइवेट सेक्टर को कैप्टिव माइनिंग के लिए कोल-ब्लॉकों को देने के लिए संशोधन किया गया था तब से लेकर आज तक 1993 से 2003 तक किए गए  आवंटन तत्कालीन कांग्रेस सरकार की नीतियों जिनका बाद में एनडीए सरकार ने भी  अनुकरण किया, के अनुसार किया गया था । मेरे हिसाब से सन् 1993 से सन् 2003 के मध्य आवंटित कोल ब्लॉकों की जाँच करने की कोई जरूरत नहीँ थी। क्योंकि सीएजी ने इस अवधि के आवंटनों पर न तो कोई विपरीत प्रतिक्रिया दर्शाई थी और न ही किसी प्रकार की कोई शिकायत की थी। ऐसे भी दो दशक से ज्यादा का समय बीत चुका था। उस समय लिए गए निर्णय की वर्तमान समय के सापेक्ष में न तो सार्थक जाँच की जा सकती थी और न ही उन केसों में किसी को भी उत्तरदायी ठहराया जा सकता था। इतने पीछे तक जाँच करने जाने का मतलब केवल सीबीआई के सीमित संसाधनों का अर्थात् सीमित मानव-शक्ति और अन्य विशेषज्ञों का समय, ऊर्जा और शक्ति गँवाना था, जिनका प्रयोग संदिग्ध कारणों और संदिग्ध व्यक्तियों की खोज करने में अच्छी तरह लगाया जा सकता था।
सीबीआई के पास सत्य  खोज निकालने की दक्षता नहीँ है, इसे केवल लोगों को फसाने और छुड़ाने की महारत हासिल है। दुर्भाग्य से, कोलगेट जाँच में भी ऐसा ही हो रहा था। भले ही सारी जाँच को सुप्रीम कोर्ट मोनिटर क्यों नहीँ कर रही थी। ऐसे भी सीबीआई में लगभग सारे पुलिस अधिकारी भरे हुए है, मुझे नहीँ लगता उन्हें नीतिनिर्माण और उसके कार्यान्वयन का अच्छा ज्ञान है। अगर ज्ञान है भी तो थोड़ा-बहुत या फिर नहीँ के बराबर। जाँच की समूची बागडोर इंस्पेक्टर स्तरीय अधिकारियों के हाथों में थी, जिन्हें सरकार के निर्णय लेने की प्रक्रिया की  कोई जानकारी नहीं होती हैं। जब सीबीआई ने मुझे तहक़ीक़ात के लिए दिल्ली बुलाया, तो मैंने सोचा कि केस के आर्थिक, राजनैतिक प्रभाव और महत्त्व को देखते हुए सीबीआई के निदेशक या उनसे एक या दो रैंक नीचे वाले अधिकारी मुझसे पूछताछ करेंगे। मगर ऐसा नहीँ था। जाँच करने वाला अधिकारी केवल एक पुलिस इंस्पेक्टर था, जिसे यह तक मालूम नहीँ था कि कोल ब्लॉक’  और कोल माइनमें अंतर क्या होता है।मैंने सीबीआई की जाँच में दो दिन बिताये और जाँच अधिकारी को विस्तारपूर्वक स्क्रीनिंग समिति की कार्य पद्धति, भारत सरकार के बिजनेस रुल्स के अंतर्गत सचिव और मंत्री के निर्णय की भूमिका और उत्तरदायित्वों की सीमा के बारे में बताया। बातचीत करते-करते तलाबीरा-2 ब्लॉक की बात भी उठी। मैंने इस ब्लॉक को हिंडाल्को को देने के औचित्य के बारे में बताया
सीबीआई का मन्तव्य यह था कि हिंडालको को इस ब्लॉक में शामिल करने से उसे फायदा हुआ मैंने समझाया, "इसमें कोई दो राय नहीँ है कि इस ब्लॉक को मिलने से हिंडाल्को को फायदा हुआ है। लेकिन यह फायदा वैसा ही है जैसा उस समय सरकार की नीति के अनुसार दूसरी सैकड़ों कंपनियों को  हुआ। इसी  कारण मैंने खुली बोली से आवंटन करने का प्रस्ताव रखा था।"
जांच अधिकारी मेरी बात से सहमत नहीँ हुआ और उसने कहा कि लगता है प्रधानमंत्री कार्यालय के दबाव में  हिंडाल्को को इस ब्लॉक में शामिल किया गया है।  
मैंने उत्तर दिया,"नहीँ, इस केस में प्रधानमंत्री कार्यालय का कोई दबाव नहीँ था। यह केस पूरी तरह से मेरिट के आधार पर तय किया गया है।यह मेरी सिफ़ारिश थी और मैं इसका पूरा उत्तरदायित्व लेता हूँ।"
मैंने सोचा कि सीबीआई मेरे इस निर्णय के तर्क को अच्छी तरह समझ गई होगी। मगर आश्चर्य हुआ जब सीबीआई ने मेरे खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की और मेरी सेवा-निवृत्ति के आठ साल बाद एक दर्जन सीबीआई के अधिकारियों की टीम ने मेरे फ्लैट की छान-बीन करने के लिए मेरा दरवाजा खटखटाया। मैं नहीँ समझ पा रहा था कि वे क्या उम्मीद लेकर आए है मेरे घर में। मेरे हिसाब से कोयला घोटाले की जाँच के बारे में सीबीआई का दृष्टिकोण पूर्णतया गलत था। सीएजी की रिपोर्ट ने देश में हलचल मचाई थी और मचना भी चाहिए था। रिपोर्ट का मुख्य रेखांकन था खुली बोली जैसी पारदर्शी प्रणाली को लागू करने में हुए विलम्ब की वजह से कोलगेट जैसा घोटाला घटित हुआ। मैंने तो कोयला मंत्रालय ज्वाइन करते ही इस प्रणाली को लागू करने पर जोर दिया और  सेवा-निवृत्ति पर्यन्त इस पारदर्शिता के पीछे मैं लगा रहा। सीबीआई ने इस असामान्य विलम्ब के कारणों को जानने की कोई  कोशिश नहीँ की। सीबीआई को यह जानना चाहिए था क्या यह विलम्ब जान-बूझकर हुआ और  इस विलम्ब के क्या  कारण थे? अगर जान-बूझकर देरी हुई है तो उसके लिए कौन उत्तरदायी थे? क्या उन्हें मनमाने ढंग से निर्णय लेने में कुछ फायदा  हुआ ? सीबीआई  इन सवालों की जाँच  नहीं कर रही थी। उसका निशाना गलत जगह पर था।जब सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पलटकर अपराधियों को बचाने के लिए अध्यादेश तीन महीने की लघु अवधि में ला सकती है। तब क्या सरकार कोल माइन्स नेशनलाइनेशन एक्ट में छोटासा संशोधन कर कोल ब्लॉक आवंटन में पारदर्शिता और समरूप तरीके को ईजाद नहीँ कर सकती थी? यह सीबीआई की जांच मूल बिन्दु था। किन्तु सीबीआई यह नहीँ कर रही थी। इसके बदले, केंद्रीय सरकार, राज्य सरकार, विभिन्न मंत्रालयों और प्राइवेट कंपनियों के हजारों डाक्यूमेंट्स की जाँच करने की निरर्थक मेहनत कर रही थी, जहाँ उसे कुछ मिलना नहीँ था। मुझे कोलगेट में जो प्राथमिकियाएँ दर्ज हैं, उनके बारे में कोई  जानकारी नहीँ है। किन्तु मैं बेहिचक यह कह सकता हूँ,कि  हिंडाल्को के मामले में या तो अपनी जांच करने में सीबीआई पूरी तरह से अक्षम है या फिर जान-बूझकर कोई गहरा खेल खेल रही थी, जिसकी मुझे कोई कोई जानकारी नहीँ।
इससे ज्यादा और क्या  अनर्गल हो सकता है कि सीबीआई ने अपनी अंगुली ओड़िशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की तरफ उठाई ,सिर्फ इस वजह से कि उन्होंने हिंडाल्को के पक्ष में अपनी सिफारिश की थी। क्या कोई मुख्यमंत्री अपने राज्य के विकास के लिए उन परियोजनाओं की सिफ़ारिश नहीँ कर सकता है, जिससे उसके राज्य में रोजगार और राजस्व पैदा होता हो? अगर वह ऐसा नहीँ करता है तो फिर मुख्यमंत्री किसलिए है?  इस तरह की जांच से तो जनता के लाखों-करोडों रुपये जाँच में फूँकने के बाद कोलगेट का नतीजा भी टाँय-टाँय-फिस्स हो जायेगा, ठीक वैसे ही, जैसे बोफोर्स  घोटाले में हुआ।आखिरकार ऐसा क्यों? पारदर्शी प्रणाली को लागू करने में विलम्ब करने वाले वास्तविक अपराधी और अपारदर्शी प्रणाली से जिन्हें फायदा मिला है, शायद निरापद घोषित हो जाएँ।
तलबीरा-2 एवं हिंडाल्को :-
तलबीरा-2 एवं तलबीरा-3 एक बड़े कोल ब्लॉक के दो उप-ब्लॉक है, जिनके न ऐसे जियोग्राफिकल या  जियोलोजिकल फीचर्स है, जिससे उन्हें दो अलग-अलग खदानों में वर्गीकृत किया जा सके। बहुत साल पहले उन्हें अलग-अलग ब्लॉकों में बाँट दिया गया था, जो कि पूरी तरह से अवैज्ञानिक था। तलाबीरा -3 कोल इंडिया की अनुषंगी कंपनी महानदी कोलफील्डस लिमिटेड के पास था और तलबीरा-2 को केप्टिव यूज़ के लिए रखा गया था। मुझे कोल-ब्लॉक का यह कृत्रिम वर्गीकरण सही नहीं लगा। इस डिवीजन का मतलब था बेरियर में बहुत सारे कोयले को व्यर्थ छोड़ देना। माइनिंग जियोलोजिस्ट की अकादमिक पृष्ठभूमि होने के कारण ये सारी चींजें मुझे आसानी से समझ में आ रही थी। कोयला मंत्रालय ज्वाइन करने के तुरंत बाद मैंने निर्देश दिए कि भविष्य में सारे कोल-ब्लॉकों की सीमा का निर्धारण केवल जियोलोजिकल एवं जियोग्राफिकल फीचर्स देखकर किया जाए। किसी भी ब्लॉक का कृत्रिम तरीके से उप-वर्गीकरण न किया जाए।
हिंडाल्को व नेवेली लिग्नाइट कोरपोरेशन दोनों तलाबीरा-2 ब्लॉक के मजबूत दावेदार थे। दोनों की  वित्तीय, तकनीकी सक्षमता तथा विश्वसनीयता के बारे में कोई संदेह नहीं था। हिंडाल्को का आवेदन पहले आया था और ओड़िशा सरकार ने इसका दृढ़ समर्थन किया था । राज्य सरकार की सिफारिशों तथा पहला आवेदक होने के कारण स्क्रीनिंग कमेटी पूरा तलाबीरा-2 ब्लॉक हिंडाल्को को आवंटित कर सकती थी। केप्टिव माइनिंग पालिसी कोयला क्षेत्र में निजी निवेश को बढ़ाने के लिए बनाई गई थी, इस ग्राउंड पर भी  नेवेली लिग्नाइट कारपोरेशन के तलाबीरा-2 के आवेदन को ख़ारिज किया जा सकता था। सरकारी कंपनी होने के कारण नेवेली लिग्नाइट कारपोरेशन को केप्टिव लिस्ट के बाहर का कोल ब्लॉक भी दिया जा सकता था। इन कारणों से तलबीरा-2 ब्लॉक पूरा का पूरा हिंडाल्को को दिया जाता तब भी मुझे अपने कार्यालय का दुरुपयोग करने अथवा भ्रटाचार के मामले में दोषी नहीँ  ठहराया जा सकता था।  
स्क्रीनिंग कमेटी के पास कोल ब्लॉक को आवंटन करने हेतु निर्णय लेने का अधिकार नहीँ था। यह केवल विभिन्न मंत्रालयों  से सलाह लेने का मंच था, जहाँ सारे स्टेक होल्डर अपनी बात रख सकते थे। कमेटी में हुए सारे विचार-विमर्श को रिकॉर्ड किया जाता था, जिस पर चेयरमैन को अपना अंतिम निर्णय लेना होता था। कोयला मंत्रालय में स्क्रीनिंग कमेटी की सिफ़ारिशों की जांच करने के बाद कोयला मंत्री कोल ब्लॉकों के आवंटन का निर्णय लेते थे। यदि स्क्रीनिंग कमेटी की सिफारिशों में कुछ गलती हो गई हो तो कोयलामंत्री का यह दयित्व था कि वे  निष्पक्ष व सही निर्णय लें, राज्य सरकार की हिंडाल्को के पक्ष में दृढ़ सिफारिशों के बावजूद भी स्क्रीनिंग कमेटी की बैठक में नेवेली लिग्नाइट कारपोरेशन को ब्लॉक आवंटित करने के निम्न  कारण थे :-
1.       नेवेली लिग्नाइट कारपोरेशन कोयला मंत्रालय की अपनी कंपनी के पास बहुत पूंजी थी,किन्तु हाथ में कोई नए प्रोजेक्ट नहीँ  थे। तलबीरा-2 ब्लॉक के आवंटन से नेवेली लिग्नाइट कारपोरेशन के लिए लाभदायक निवेश के रास्ते तुरंत खुल जाएंगे।
2.       हिंडाल्को को तलाबीर-2 आवंटित करने का अर्थ था तलाबीरा-2 और 3 को दो अलगअलग खदानों में विभाजित करना, जिससे  ब्लॉक की सीमा पर करीब 30 मिलियन टन कोयले का छूट जाना।
3.       महानदी कोलफील्ड्स लिमिटेड और नेवेली लिग्नाइट कारपोरेशन दोनों ही कोयला मंत्रालय की अधीनस्थ कंपनियाँ थी, इसलिए दोनों का एक ज्वाइंट वेंचर बनाकर दोनों ब्लॉक की एक माइन बनाई जा सकती थी। इस तरह सीमा पर छूट जाने वाले कोयले को भी निकाला जा सकता था। 
स्क्रीनिंग कमेटी की इन सिफारिशों के आधार पर तलाबीरा-2 को नेवेली लिग्नाइट कारपोरेशन को दिए जाने का प्रस्ताव प्रधानमंत्री (जब उनके पास कोयला-मंत्री का अतिरिक्त भारत था) के पास भेजा गया। प्रधानमंत्री कार्यालय इस प्रस्ताव पर विचार कर ही रहा था कि कुमार मंगलम बिरला ने प्रधानमंत्री को  एक आवेदन दिया और लिखा कि स्क्रीनिंग कमेटी द्वारा तलाबीरा-2 ब्लॉक पर उनके दावे को ख़ारिज करना अनुचित है। इसलिए उन्होंने इस विषय पर पुनः विचार करने की मांग की। ओड़िशा के मुख्यमंत्री ने भी एक पत्र लिखकर तलबीरा-II ब्लॉक हिंडाल्को को देने की गुजारिश की।  वह एनएलसी को यह ब्लॉक देने के पक्ष में नहीँ थे। उनके अनुसार नेवेली लिग्नाइट कारपोरेशन दूसरे राज्यों को बिजली भेजेगा और ओड़िशा में केवल प्रदूषण करेगा। इसलिए वह चाहते थे तलाबीरा-2 ब्लॉक हिंडाल्को को मिले, ताकि एक बड़े एलुमिनियम उपक्रम से राज्य को अतिरिक्त रोजगार एवं राजस्व मिलेगा और साथ ही साथ, राज्य में  औद्योगिक विकास  का भी काम होगा।
प्रधानमंत्री कार्यालय ने इन दोनों संवादों के साथ प्रस्ताव पर पुनर्विचार करने के लिए फाइलें कोयला-मंत्रालय को लौटा दी। श्री कुमार मंगल बिरला मुझे मेरे कार्यालय में मिले और वैसा ही एक रिप्रजेंटेशन मुझे भी  दिया। उनका कहना था कि हिंडाल्को ने इस ब्लॉक के लिए सबसे पहले आवेदन दिया था और कानून के हिसाब से इस ब्लॉक पर उनका सबसे अधिक हक बनता है।
हिंडाल्को के दावे को इस तर्क पर ख़ारिज करना गलत है कि नेवेली लिग्नाइट कोरपोरेशन सरकारी कंपनी है, जबकि केप्टिव माइनिंग पोलिसी कोयला खनन के क्षेत्र में निजी निवेश को बढ़ावा देने के लिए बनी है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि  बाक्साइट की माइनिंग लीज राज्य सरकार द्वारा विलम्ब से अनुमोदित होने के कारण प्रोजेक्ट के पुराने लिंकेजों का  इस्तेमाल नहीँ किया जा सका। कोयले की कमी के कारण सीआईएल पुराने लिंकेजों को प्रयोग में लाने की अवस्था में नहीँ था। मैंने श्री बिरला की दलीलों को सुना उनसे कहा, “ आपका पक्ष मजबूत होने के बावजूद भी कोयले के संरक्षण के मद्देनजर रखते हुए तलाबीरा-2 ब्लॉक स्वतंत्र रूप से आपको नहीँ दे सकते। यदि आप दूसरी कंपनियों के साथ प्रस्तावित ज्वाइंट वेंचर में  भाग लेने के लिए तैयार हो तो इस विषय पर पुनः विचार किया जा सकता हैं।"
बिरला पहले-पहले हिचकिचाए, फिर कुछ सोचने के बाद वे प्रस्तावित ज्वाइंट वेंचर करने के प्रस्ताव के  लिए सहमत हो गए। बिरला के अभ्यावेदन और ओड़िशा के मुख्यमंत्री की चिट्ठियों की अच्छी तरह परीक्षा करने के बाद मैंने अनुभव किया कि दोनों के तर्कों में कुछ दम है और इस केस पर पुनर्विचार किया जा सकता है। उपरोक्त सारे तथ्यों  के साथ मैंने एक नोट बनाया और  लिखा कि हिंडाल्को  के आवेदन में योग्यता है,इसलिए तलाबीरा-2 और तलाबीरा-3 को मिलाकर एक बड़ी खान बनाई जाए और एमसीएल,एनएलसी और हिंडाल्को  तीनों को इस खदान से अपनी अपनी पात्रता के अनुसार कोयला दिया जाए।प्रधानमंत्री ने कोयला मंत्री की हैसियत से तलाबीरा-2 को नेवेली लिग्नाइट कारपोरेशन और हिंडाल्को को ज्वाइंटली आवंटित करने के प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी।
इन सभी  तथ्यों की गहराई तक जाँच किये बिना सीबीआई ने निष्कर्ष निकाल लिया कि जरूर इसमें कुछ घपला और भ्रष्टाचार है क्योंकि मेरा रिवाइज्ड प्रस्ताव स्क्रीनिंग कमेटी की सिफ़ारिशों से थोड़ा हटकर था। जैसे कि मैंने पहले कहा था, स्क्रीनिंग कमेटी अंतर-मंत्रालय की सलाह मशविरा का एक मंच था, जिसके पास कोल-ब्लॉकों के आवंटन की स्वीकृति का कोई अधिकार नहीँ था। स्क्रीनिंग कमेटी  में हुए विचार-विमर्श से मैं पूरी तरह अवगत था। इसलिए मुझे प्रधानमंत्री कार्यालय से प्राप्त रिप्रेजेंटेशन की पुनर्परीक्षा करने के लिए मुझे इस विषय को वापिस स्क्रीनिंग कमेटी  के समक्ष ले जाने की जरूरत नहीँ थी। मैं कोई  कानून विशेषज्ञ नहीँ हूँ। कानून की मुझे उतनी ही जानकारी है जितनी आईएएस ज्वाइन करने पर प्रशिक्षण अकादमी में बताई जाती है। सीबीआई निदेशक, श्री रणजीत सिन्हा, अपने सारे जीवन पुलिस अधिकारी रहे हैं। उनके पास सीबीआई में विशेष कानूनी सलाहकार भी है।मगर सीबीआई द्वारा मेरे खिलाफ दर्ज की गयी प्राथमिकी के सन्दर्भ में उनसे मेरे कुछ निम्न सवाल है :-
1.    श्री बिरला ने मुझे और प्रधानमंत्री को अपनी कंपनी के साथ हुए अन्याय के बारे में अगर रिप्रेजेंटेशन दिया तो कौन-सा गुनाह हो गया? अगर कोई नागरिक यह समझता है कि सरकार ने उसके साथ अन्याय किया है और उनके खिलाफ अपना रिप्रेजेंटेशन देता है तो क्या कानून की नजरों में वह अपराधी या षड़यंत्रकारी हो जाता है? क्या सीबीआई के पास बिरला के खिलाफ ऐसे कोई सबूत है जिससे यह जाहिर होता है कि उसने मेरे साथ मिलकर कोई साजिश रची है? अगर रची है तो वह साजिश क्या है?
2.    क्या ऐसा कोई नियम या कानून है जो किसी अधिकारी को किसी मसले की पुनर्परीक्षा करने से रोकती है,जहाँ किसी नागरिक को लगता है उसके साथ अन्याय हुआ है? क्या हिंडाल्को कोई बोगस कंपनी है? क्या इस कंपनी  की आर्थिक,तकनीकी दक्षता और इसके प्रोजेक्ट के बारे में कोई संदेह है। जिसके कारण वह कोल ब्लॉक के आवंटन के लिए क्वालीफाई नहीँ होती है? क्या मेरिट के आधर पर तलाबीरा-2 पर हिंडाल्को का दावा नेवेली लिग्नाइट कार्पोरेशन से कम है? क्या सीबीआई को मालूम है कि हिंडाल्को का प्रोजेक्ट जिसके लिए कोल-ब्लॉक आवंटित हुआ था, लागू हो गया है, जबकि नेवेली लिग्नाइट कॉर्पोरेशन ने अपने पावर प्रोजेक्ट रद्द कर दिया है। क्या किसी प्रशासनिक अधिकारी द्वारा असंतुष्ट पार्टी की अर्जी पर पुनर्विचार करना अपने आप में एक षड़यंत्र और भ्रष्टाचार है? इस केस में किस जगह पर शक्ति का दुरुपयोग किया गया है?
3.    सीबीआई को कहाँ से यह खबर मिली कि तलाबीरा-2 सरकारी कंपनियों के आवंटन के लिए रिजर्व रखा गया है? अगर वह सरकारी कंपनी के लिए रिजर्व रखा गया था तो हिंडाल्को ने आवेदन कैसे कर दिया? फिर यह मैटर स्क्रीनिंग कमेटी के पास क्यों आया? जबकि पब्लिक सेक्टर के लिए आरक्षित रखे गए कोल ब्लॉकों के आवंटन में स्क्रीनिंग कमेटी की कोई भूमिका ही नहीँ है। क्या इस झूठी खबर को सीबीआई ने मेरी स्वच्छ छबि को कलंकित करने के लिए प्रचारित किया?
4.    सीबीआई को यह खबर कहाँ से मिली कि तलाबीरा-2 में कोयले की कम मात्रा होने के कारण नेवेली लिग्नाइट कॉर्पोरशन ने  अपना प्रोजेक्ट रद्द कर दिया ? क्या सीबीआई इस बात को जानती है कि नेवेली लिग्नाइट कॉर्पोरशन ने इस परियोजना को इसलिए रद्द कर दिया क्योंकि  ओड़िशा सरकार ने उनसे 30% मुफ़्त बिजली माँगी? सीबीआई ने मीडिया से झूठ क्यों बोला?
5.    अपनी प्रारम्भिक जाँच में सीबीआई ने षड़यंत्र और भ्रष्टाचार के नतीजे पर पहुँचने से पहले प्रधानमंत्री कार्यालय से संबधित फाइलों की जाँच-पड़ताल करना उचित क्यों नहीँ समझा?
6.    क्या सीबीआई को इस बात की जानकारी है कि भारत सरकार के बिजनेस रुल्स के तहत जब तक कोई पावर डेलिगेशन नहीं की गई हो,सेक्रेटरी केवल सिफारिश ही कर सकता है? निर्णय लेना तो मंत्री का काम होता है। क्या सीबीआई ने अपनी प्रारम्भिक जाँच में यह नहीँ देखा कि इस केस में निर्णय प्रधानमंत्री द्वारा लिया गया है? अगर सीबीआई को किसी षड़यंत्र अथवा भ्रष्टाचार की भनक लगी तो उसने अपनी प्राथमिकी में प्रधानमंत्री का नाम क्यों नहीँ लिया?
7.    क्या सीबीआई के पास वीसा पॉवर और नवभारत के कोल ब्लॉक आवंटन में मेरी भूमिका की कोई सूचना है? अगर है तो क्या है ? और अगर नहीँ है तो सीबीआई ने बिलकुल आधारहीन और असंगत बातें जनता में क्यों फैलाई?
8.    सीबीआई ने मेरे घर की तलाशी क्यों ली? मेरे सेवानिवृत्त होने के आठ साल बाद इस तलाशी से वह क्या पाना चाहते थे? क्या यह किसी भी नागरिक के निजत्व में अकारण घुसपैठ नहीँ है?
9.    अगर तलाबीरा-2 को हिंडाल्को को आवंटित करना किसी भी प्रकार का फ़ेवर था तो क्या 200 दूसरी प्राइवेट पार्टियों को किया गया आवंटन अनुचित फ़ेवर नहीँ है? इन निर्णयों में शामिल हर किसी पर षड्यंत्र या भ्रष्टाचार के आरोप क्यों नहीँ लगे?
मेरे सारे कैरियर में मेरे सहकर्मियों और जिनके साथ मैंने काम किया, उनमें सदैव मेरी छबि स्वच्छ व उच्च रही है। कभीकभी तो ऐसा भी हुआ है, जिनसे मैं मिला तक नहीँ, उन लोगों ने भी मेरी लगन और ईमानदारी की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। ऐसे ही एक शख्स थे, महाराष्ट्र के कैबिनेट मंत्री श्री सुधीर मुंगन्तीवार। उन्होंने 24 सितंबर 2005 को मुझे एक पत्र लिखा, जब मैं कोयला मंत्रालय में सचिव था,“भले ही, कभी मैं आपको व्यक्तिगत रूप से नहीँ मिला हूँ, मगर मैंने आपके और आपकी सत्यनिष्ठा के बारे में बहुत कुछ सुना है। इसलिए आपके बारे में अपनी भावनाएँ व्यक्त करने के लिए यह पत्र लिख रहा हूँ। आप सिस्टम में बहुत बदलाव ला रहे हैं। मैंने कई लोगों के मुख से आपकी सत्यनिष्ठा की तारीफ सुनी है। आपने ई-ऑक्शन शुरू किया। आप राजनैतिक दबाव से प्रभावित हुए बिना जो काम कर रहे है, वह प्रशंसनीय है। हानि में डूबे कोल इंडिया लिमिटेड को उठाकर लाभकारी कंपनी में बदलने के लिए आपके प्रयासों की सफलता की हार्दिक शुभ कामनाएँ देता हूँ। आप जिस सत्य के रास्ते पर चल रहे हो, वास्तव में वह प्रशंसनीय है। यह बात सही है,सत्य कभी-कभी अपने साथ हताशा लाता है, मगर वह कभी भी हार नहीँ सकता। मेरी आपको हार्दिक शुभकामनाएँ......
 मंत्रियों और सांसदों से लगातार लड़ाई के बीच किसी अनजान व्यक्ति की ऐसी चिट्ठी मिलना, जो वो भी एक राजनेता से,  सच में एक बड़ा मॉरल बूस्टर था। यह इस बात का प्रतीक है कि चहुँ ओर से पतन हो रहे हमारे राजनैतिक सिस्टम में इक्का-दुक्का ऐसे राजनेता अभी भी मौजूद हैं, जो प्रशासनिक अधिकारी की ईमानदारी और निष्पक्षता की इज्जत करते हैं।
जब सीबीआई ने मेरे खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की, मेरे साथीगण, जीवन के अलग-अलग मोड़ पर संपर्क में आए विभिन्न लोग, राज्य एवं केन्द्रीय सेवा के सर्विस एसोसिएशन, सभी  से मुझे जबर्दस्त संसर्थन मिला। कुछ पत्र तो बहुत ही मर्मस्पर्शी थे।लगभग पचास साल पहले जब मैं एनएमडीसी में काम करता था, उस समय के मेरे एक  मित्र जिनसे सालों से कोई संपर्क नहीं था, ने एक पत्र लिखा। वह पत्र इस प्रकार था:- प्रधानमंत्री द्वारा हिंडाल्को मुद्दे में ज़िम्मेदारी लेना साफ-साफ दिखाता है कि आपके विरुद्ध सीबीआई के आरोप कितने तुच्छ थे। भ्रष्टाचार से पूरी तरह कलुषित वातावरण में अपने अटूट साहस का परिचय दिया है। इसलिए मैं तुम्हारी खुले मन से प्रशंसा करता हूँ और तुम्हारी बहादुरी की दाद देता हूँ तुम्हारे टीवी साक्षात्कार अत्यंत ही संक्षिप्त, बुद्धिमत्तापूर्ण और टू द पॉइंट होते थे। सभी की ओर से मिलने वाला सहयोग तुम्हारी सत्यनिष्ठा को दर्शाता है।पारख, दूसरे शब्दों में, अगर तुम भ्रष्ट हो तो भगवान भी भ्रष्ट है।सत्य की हमेशा जीत होती है।"
प्राथमिकी दर्ज करने के बाद, किसी भी राजनैतिक पार्टी ने मेरे ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप नहीँ लगाये। प्रधानमंत्री ने साफ-साफ कहा कि उन्होंने अपने सामने रखे हुए तथ्यों को ध्यान में रखकर निर्णय लिया और वह निर्णय एकदम सही था। मगर जब सीबीआई कोई प्राथमिकी दर्ज करती है  तो जन सामान्य के मन में संदेह पैदा होना स्वाभाविक है। चारों तरफ फैले भ्रष्टाचार के माहौल में हर सरकारी निर्णय को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है।
कोई सोच भी नहीँ सकता था कि देश की सबसे बड़ी जाँच एजेंसी झूठे, अर्द्ध-सत्य और अटकलों के आधार पर केस बना सकती है।श्री रणजीत सिन्हा (सीबीआई निदेशक) को मेरे ऊपर षड़यंत्र और भ्रष्टाचार के आरोप लगाने के पहले अपना होमवर्क ठीक से  कर लेना चाहिए था। कम से कम उन्हें कोयला मंत्रालय की उन फ़ाइलों को देख लेना चाहिए था, जिसमें न केवल कोयला मंत्रालय, वरन् सारे कोयला उद्योग में पारदर्शिता लाने के मेरे सारे प्रयासों का लेखा-जोखा था। मीडिया के सामने उनके लिए यह कहना आसान था कि अगर कोई ठोस सबूत नहीँ मिला तो केस बंद कर दिया जायेगा। मगर  मेरी प्रतिष्ठा जो मैंने जीवन पर्यंत सत्यनिष्ठा के साथ काम करके अर्जित की थी,उसका क्या होगा, क्या उस अपूरणीय क्षति की कोई भरपाई कर सकता है? मि. सिन्हा, मैंने कभी भी अपने कार्यालय का दुरुपयोग नहीँ किया, मगर  आपने किया है- कुमार मंगल बिरला और मुझ पर षड्यंत्र और भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर। मेरी सिफ़ारिशें तो  सरकार की घोषित नीतियों की सीमाओं के अंतर्गत थी, मगर तुमने जो भी काम किया, कानून, नियम और तथ्यों को बिना ठीक से जानेशायद सुप्रीम कोर्ट को प्रभावित करने के लिए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट इस केस को मॉनिटर कर रहा है। अतः नागरिकों के मूलभूत अधिकारों के कस्टोडियन के रूप में यह सुनिश्चित करना इस कोर्ट का कर्त्तव्य बनता है कि प्रोफेशनलिज्म और सक्षमता के अभाव में सीबीआई नागरिकों की प्रतिष्ठा पर कोई आघात नहीं पहुंचाए। सिद्धांत के तौर पर कोर्ट को सीबीआई को यह स्पष्ट निर्देश देना चाहिए कि जब तक कोई केस चार्जशीट फाइल करने की फाइनल स्टेज में नहीँ पहुंचता है, तब तक सीबीआई को अपनी इन्वेस्टीगेशन गोपनीय रखने चाहिए, ताकि भविष्य में सीबीआई द्वारा नागरिकों के चरित्र का हनन न हो सके।
सीबीआई की स्वायत्तता:-
सीबीआई की स्वायत्तता पर प्रश्न वाचक चिह्न तब लगा, जब सुप्रीमकोर्ट ने उसे पिंजरे का तोता कहा और इस विषय पर पब्लिक डिबेट शुरू हुई। ऑल इंडिया सर्विस के सदस्यों की  स्वायत्तता उनके  प्रयोग में लाने की इच्छा शक्ति पर निर्भर करती है। इच्छा के अभाव में कानून पर दोष मढ़ना अनावश्यक है। जब तक किसी अधिकारी को सेवानिवृत्ति के बाद नौकरी की इच्छा या सेवाकाल में ट्रांसफर का डर नहीँ है, तो उसे अपने जजमेंट के हिसाब से काम करने से कोई नहीँ रोक सकता है। यह स्वायत्तता नहीँ तो और क्या है? भारतीय पुलिस सेवा के सदस्य होने के नाते सीबीआई निदेशक को अपनी अंतरात्मा की आवाज के अनुरूप काम करने की स्वायत्तता है। श्री रणजीत सिन्हा पर कोलगेट इन्वेस्टीगेशन की प्रोगेस रिपोर्ट में अंग्रेजी के सही प्रयोगहेतु कानून मंत्री को दिखाने की कोई आवश्यकता नहीं थी। इसी  वजह से सीबीआई को 'पिंजरे का तोताकहा गया। अगर श्री सिन्हा को वास्तव में लगा कि हिंडाल्को का केस एक षड़यंत्र था और उनमें उतनी हिम्मत थी तो उस प्राथमिकी में प्रधानमंत्री का नाम भी शामिल करना चाहिए था।
कितने संरक्षण क्यों न दिये जाये, अगर सीबीआई मुखिया का उद्देश्य अगर कुछ दूसरा ही हो और वह अपनी स्वाययीत्तयीयता का प्रयोग करना न चाहे, तो उसे स्वायत्त कभी नहीँ बनाया जा सकता। निस्संदेह सरकार की पूर्व स्वीकृति के प्रावधान का भ्रष्टाचारी अधिकारियों को बचाने के लिए  राजनैतिक गलियारों द्वारा बहुत ज्यादा दुरुपयोग किया गया है। मगर सीबीआई को बिना किसी सुपरविजन और एकाउण्टेबिलिटी के किसी भी अधिकारी पर आपराधिक करवाई शुरू करने का अधिकार देने का अर्थ एक ऐसा इलाज है,जो बीमारी से ज्यादा खराब है। यह देश के अर्थतंत्र और राजनीति के लिए गंभीर चुनौती होगी। सीबीआई की स्वायत्तता के बारे में अपना कोई निर्णय लेने के पहले  न्यायपालिका और संसद दोनों को इस खतरे का अहसास होना चाहिए।




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