टी॰एस॰आर॰ सुब्रमनियन, सेवानिवृत्त आईएएस, पूर्व कैबिनेट सेक्रेटरी, भारत सरकार द्वारा इस पुस्तक पर लिखा गया आमुख

आमुख
           संसदीय-प्रणाली में देश का शासन चलाने के लिए एक्जिक्यूटिव मुख्यतः उत्तरदायी होते हैं। इस प्रणाली में दो भाग होते हैं,पहला पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव, दूसरा परमानेंट एक्जिक्यूटिव। केंद्र और राज्य स्तर पर पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव नीति-निर्माण, गवर्नेंस, विकास के मुख्य मुद्दों पर निर्णय लेने तथा नीतियों के क्रियान्वयन की मॉनिटरिंग व सुपरविजन के प्रति जवाबदेह है। गांव से ब्लॉक और जिले तक हर स्तर पर सरकारी अधिकारी और कर्मचारी नियुक्त होते हैं और केंद्र  व राज्य के सचिव तथा वरिष्ठ नौकरशाह व पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव द्वारा सौंपे गए कार्यों के क्रियान्वयन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार होते हैं। उच्च स्तर पर सिविल सर्विस पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव के सलाहकार का काम करती है तथा नीतिनिर्धारण में सहयोग करती है। स्वभावतः पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव तथा परमानेंट  एक्जिक्यूटिव के बहुत सारे काम एक-दूसरे पर अध्यारोपित होते हैं , इसलिए उनके बीच मधुर संबंध अच्छे शासन के लिए एक आवश्यक शर्त होती है।
       प्रशासन सिक्के के दो पहलू है नौकरशाह और राजनेता। दोनों के मध्य मधुर संबंध  और जनहित के लिए मिलकर काम करना एक अच्छे प्रशासन की कुंजी है विगत कुछ दशकों में यह देखा गया है कि यह आदर्श ढांचा व्यावहारिक तौर पर गंभीर हद तक चोटिल हुआ है। पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव न केवल चापलूसी पसंद करते हैं बल्कि अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए सरकारी अधिकारियों से सही या गलत किसी भी तरह कार्य साधने के लिए आज्ञापालन की मांग करते हैं। राजनैतिक पटल पर बहुत ज्यादा भ्रष्टाचार जाने के बाद मंत्री या राजनैतिक मुखिया नौकरशाहों से व्यक्तिगत लाभ के लिए काम करवाना चाहते हैं , कि जनहित में। यह मुख्य कारण है,शासन में तेजी से गिरावट आने का।
       संक्षेप में, आज के जमाने में राजनीति एक व्यवसाय बन गया है, जैसे कोई युवा उद्योगपति व्यवसाय में अपनी पूंजी लगाकर अपना भविष्य संवारना चाह रहा हो। दुर्भाग्य से कुछ सम्मानजनक अपवादों के अतिरिक्त यह आजकल नियम-सा बन गया है। यह तो राजनेताओं का सौभाग्य है कि कोर्ट सामान्यतया इस तरह की हरकतों को लेजिस्लेटर-प्रिविलेजमानकर इसमें हस्तक्षेप नहीं करते हैं ,इसको देखने के लिए सेबी (SEBI) जैसी कोई नई स्वतंत्र संस्था नहीं है। जो  राजनेताओं के मेल-प्रेक्टिसों को नियंत्रण में रख सकेकई दशक हो गए, देश हमें लोकपाल का इंतजार कर रहा है।       स्वतन्त्रता के बाद पहले दशकों में अधिकतर नीतियाँ उच्च सिविल सर्विस वाले अधिकारियों द्वारा प्रस्तावित, प्रायोजित  तथा विकसित की गई और साधारणतया बाद में पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव ने इन नीतियों पर अपनी सहमति जताई
       1970  तक मंत्रियों ने नीति-निर्माण और साधारणत: व्यक्तिगत केसों में भी उच्च अधिकारियों की सलाह का सम्मान कियामगर उसके बाद मंत्रियों द्वारा व्यक्तिगत मामलों में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। इसलिए 1970 और 1980 के दौरान मंत्रियों द्वारा अपने अधीनस्थों को प्रत्यादिष्ट (ओवररुल) किया जाना आम बात बन गई  और वे अपने हुक्म(रिट) चलाने लगे । सन 1990 के बाद में न्यायपालिका के विपरीत ध्यानाकर्षण के कारण उच्च अधिकारियों के तर्कसंगत, सही और उचित टिप्पणी को मनमाने (whimsical) तरीके से ओवररुल करना कठिन हो गया, विशेषकर कोर्ट द्वारा विपरीत ध्यानाकर्षण करने के कारण और अच्छी तरह बनाए हुए तर्कसंगत केस को खारिज करने में भी अन्तर्भूत समस्याएँ आने लगीं। इसके बाद असुविधाकारी सचिवों या संयुक्त सचिवों के स्थानांतरण का सिलसिला शुरू हो गया और स्वतंत्र और सही सलाह देने वाले अधिकारियों को हटाकर आज्ञाकारी (pliant) अधिकारी लाए जाने लगे। इस तरह के अधिकारी ऐसी नोटिंग लिखते थे,जिसमें मंत्री की पसंद का विकल्प मौजूद रहें।साफ तौर पर, वह अपने अधिकारियों को इच्छित कार्य की रूपरेखा दिखा देते हैं , जो मंत्री अपने सचिव को मौखिक रूप से बता देते हैं। इसके लिए ऐसे सचिव की आवश्यकता पड़ती है जो मंत्री को सपोर्ट कर सके तथा उसमें सहयोग करने की इच्छा हो। उन अधिकारियों को  सहषड्यंत्रकारी होने की जरूरत नहीं होती है, यह पर्याप्त है कि वे बौद्धिक-तौर पर बेईमान हों, जो वास्तव में सही नोट लिखने के बजाय मंत्री की इच्छा के अनुसार चाहे गए नोट्स लिखे।
           सिविल सर्विस में इस तरह का नैतिक पतन होने के बावजूद भी कई ऐसे निर्भीक अधिकारी हर-स्तर पर मौजूद थे,जो सही और जिम्मेदार नोट लिखते थे, भले ही, उनके सीनियर या मंत्री इसे पसंद  करें या नहीं करें। सौभाग्यवश आज भी कुछ स्वतंत्र व दमदार अधिकारी हैं,  जिनमें कागज पर अपनी धारणा को दृढ़तापूर्वक रखने का साहस है। मगर    दुख के साथ कहना पड़ता   है, बहुत सारे ऐसे    भी अधिकारी हैं,जिन्हें दरकिनार कर दिया जाता हैं ताकि मंत्रियों के रास्ते में रुकावट पैदा न करें
         पारख की पुस्तक केन्द्रीय सरकार के मानकों में हुई तेज गिरावट को दर्शाती है। जिलों में व्याप्त भ्रष्टाचार और नग्न-स्वार्थ (venality) आज सचिवालयों तथा केंद्र तक पहुँच गया है। सड़ांध पूरी तरह से शुरु हो  गई है, जो प्रशासनिक  प्रक्रिया  को खोखली करती जा रही है।पारख ने बहुत सही बात लिखी है, “भ्रष्टाचार के कारण शासन में बहुत सारी कुरीतियाँ पैदा हुई हैं।”
   यही मुख्य कारण है कि आजादी के सात-दशकों के बाद भी जनसंख्या का 70% भाग गरीबी,अशिक्षा तथा स्वास्थ्य-संबन्धित समस्याओं से जूझ रहा है और भारत शिष्ट-राष्ट्रों के मण्डल में निम्न श्रेणी में आता है। विश्व के नेतृत्व के परिपेक्ष में चीन और यू॰एस॰ए॰ से भले ही वह  आगे न आ सके  ,मगर कम से कम प्रतिस्पर्धा करता हुआ तो नजर आना चाहिए। पारख ने हमारे प्रशासन प्रणाली का एक असली रूप दिखाया है ।
  पारख ने कुछ जगह पर आत्म-निंदा करते हुए लिखा है, ‘… given my inflexible nature …..’ । हाँ, एक उच्च अधिकारी को विनम्र तथा सहयोगी तो होना चाहिए, मगर इसका मतलब यह नहीं है कि वह बौद्धिक स्तर पर बेईमान हो या राजनेता के व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कोई भी सलाह या विचार व्यक्त करें। वास्तव में, उन्हें सकारात्मक ढंग से ‘inflexible’ होना चाहिए।यह भी नहीं भूलना चाहिए कि संसदीय लोकतंत्र में अंतिम निर्णय लेने वाले वे नहीं हैबस,वे केवल सलाहकार है।
इस किताब में कोल-स्कैम के कई रूपों पर प्रकाश डाला गया है जिसका सीधे आम जनता के हितों से ताल्लुक था। अंत में , कोयला एक मिनरल है, जो भारत की  जनता का है, इसलिए जनता के हितों का ध्यान रखते हुए इसका उत्खनन और आवंटन उचित तथा पारदर्शी  तरीके से किया जाना चाहिए न कि क्रोनी कैपिटलिज़्मतरीके से जैसा कि तत्कालीन गवर्नमेंट ने किया। पारख को धन्यवाद देना चाहिए, उन्होंने आक्शन तरीके का साफ-सुथरा प्रस्ताव रखा, जो तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा अनुमोदित भी था। मगर राजनेताओं ने अपनी  स्वार्थपूर्ति के खातिर उस ठोस निर्णय को उलट दिया,एक दशक तक उसके क्रियान्वयन में अड़ंगा (filibuster) लगा  दिया। इसी कारण सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि कोल-स्कैम द्वारा राजकोष लूट लिया गया है। यह विषय उच्चतम न्यायालय में लंबित हैं।   
इतना कहना पर्याप्त होगा कि प्रधानमंत्री एक अप्रभावी मूकदर्शक बने रहे। यह बात भी सोचने लायक है कि उसी प्रधानमंत्री ने न्यूक्लियर डील तथा एफ़डीआई में रीटेल जैसे विषयों पर ठोस निर्णय लिया। मगर वह अपने द्वारा लिए गए कोल ब्लॉक आवंटन निर्णय को कार्यान्वित करने अक्षम (विम्प) रहे। अपने चहुं ओर भ्रष्ट ताकतों से घिरे रहने के कारण साफ लगता है कि प्रधानमंत्री परिस्थितियों के गुलाम थे,जो अधिकतर उन्होंने स्वयं पैदा की थी। यह किताब उस थ्योरी का भी असली रूप दिखाती है,जो सीएजी के क्षति-आकलन को दिखावटी ओवर एसेसमेंट मानते है, जबकि यह आकलन बहुत ही कंजरवेटिव लगता हैं
बहुत सारे भीतरी लोग,जो भारत सरकार और राज्य सरकारों के कामों से परिचित हैं,जानते है कि सरकारी उपक्रमों के डायरेक्टरों तथा सीएमडी की नियुक्ति कैसी होती है और उनमें से कितने केसों में संबंधित मंत्री और अन्य राजनेताओं के सीधे व्यक्तिगत वित्तीय हित छुपे होते हैं। इस किताब ने तो केवल आइसबर्ग के टिप को स्पर्श किया है,मगर यथार्थ तो और ज्यादा भयंकर है। उसी तरह सांसद जिन्हें पॉलिसी-मेकर कहा जाता है, हकीकत की जिंदगी में किस तरह अधिकारियों के कार्यान्वयन के हर क्षेत्र में हस्तक्षेप करते हैंकेवल अपने व्यक्तिगत लाभों की पूर्ति के लिए, जबकि जनता की भलाई कहीं भी दूर-दूर तक नजर नहीं आती है।यथार्थ में प्रशासनिक मापदण्डों में हुई गिरावट इस पुस्तक में जितनी दिखाई गई हैं, इससे कई गुणा अधिक है
एक मंत्री का यह कहना कि सारे निर्देश हम लिखित में नहीं दे सकते, हमारे सिस्टम के बहुत बड़े रोग का प्रदर्शन करती है।मंत्री लोग चाहते हैं कि उनके अधिकारी मौखिक आदेशों का पालन करें ,बिना उन्हें रिकॉर्ड किए। दूसरे शब्दों में, अधिकारी जिम्मेवारी उठाएँ और लाभ मंत्री पाएँ।
       इस संदर्भ में यह बहुत अच्छी बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने अभी-अभी सड़ांध’  को रोकने’  का आवश्यक कदम उठाया है। उच्चतम न्यायालय ने आदेश दिया है कि सारे कार्यालयीआदेश लिखित में दिए जाए।
पारख, खेमका और दुर्गा नागपाल जैसे अधिकारियों को अपने सिद्धांतों पर अडिग रहने के कारण  जनता ने सर-आँखों पर बैठाया है। वास्तविकता यह है कि सिस्टम का तेजी से पतन हो रहा है। पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव अधिकारियों के तर्क या विरोध को बर्दाश्त नहीं करना चाहते हैं और यह चाहते हैं कि उनकी मांगे तुरंत किसी भी हालत में पूरी की जाए
पारख की पुस्तक शासन के मानकों की गिरावट को समय रहते याद दिलाने वाला अनूठा दस्तावेज है तथा गंभीर प्रशासनिक सुधारों के लिए अनकही चीत्कार है।
 
टी॰एस॰आर॰ सुब्रमनियन
सेवानिवृत्त आईएएस
पूर्व कैबिनेट सेक्रेटरी
भारत सरकार
 
 



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