9. उद्योग विभाग : घूस की होम डिलीवरी

9. उद्योग विभाग : घूस की होम डिलीवरी
 
अगस्त 1993 में मैंने उद्योग विभाग के कमिश्नर का चार्ज लिया। वैश्वीकरण एवं भूमंडलीकरण के दौर में भारत की अर्थनीति भी बदलने लगी थी। भारत में कई राज्यों में निवेश को बढ़ावा देने के लिए प्रयास किए जाने लगे। परंतु आंध्रप्रदेश में राजनैतिक स्तर पर ऐसा कोई कदम नहीँ उठाया गया था। अभी भी विभाग में लाइसेंस और परमिट वाली पुरानी मानसिकता बनी हुई थी। आधुनिक दृष्टिकोण का विकास नहीँ हो पा रहा था।

एक दिन शांता बायोटेक (वर्तमान में एनोफी एसए की अनुषंगी कंपनी) के संस्थापक श्री वर प्रसाद रेड्डी मुझसे मिलने आए थे। वह अपने किसी प्रोजेक्ट के लिए अल्कोहल का लाइसेंस लेना चाहते थे।इंडस्ट्रियल प्रमोशन ऑफिसर को इसके लिए उनके औद्योगिक इकाई की जाँच करनी होती है और अल्कोहल की आवश्यकता के कारणों पर अपनी विस्तृत रिपोर्ट देनी होती थी। इस कार्य के लिए उस ऑफिसर ने उनकी इकाई की जाँच तो की, मगर अपनी रिपोर्ट जनरल मैनेजर को सबमिट नहीं की। वह कंपनी से रिश्वत की मांग कर रहा था। जब मैंने जाँच पड़ताल की तो पता चला कि उस अधिकारी ने न सिर्फ अपनी रिपोर्ट समय पर प्रस्तुत नहीं की बल्कि अपने स्थानांतरण पर अपने साथ उनकी फाइल लेकर चला गया। मैंने श्री रेड्डी जी कहा, ‘‘मेरी एक सलाह है आपसे। उस अधिकारी को एंटी-करप्शन ब्यूरो द्वारा ट्रैप करवाने में हमारी मदद करें।’’
श्री रेड्डी ने अपना सिर हिलाते हुए उत्तर दिया, ‘‘सर, यह काम हम नहीँ कर सकते हैं। किसी अधिकारी को फँसवाने में हम हमारी ऊर्जा और समय खर्च नहीँ कर सकते हैं। फिर हमें तो इन लोगों से रोज रोज काम पड़ता है।’’
श्री रेड्डी की औपचारिक शिकायत के अभाव में और उसे पकड़वाने की अनिच्छा के कारण उस अधिकारी पर लगने वाले भ्रष्टाचार जैसा गंभीर कदाचार केवल काम की उपेक्षामें बदल कर रह गया। उसे एक छोटी-सी सजा ही हुई। भ्रष्ट अधिकारी के खिलाफ शिकायत करने से लोग आखिरकार क्यों डरते हैं? क्या उनका शिकायत नहीँ करना अप्रत्यक्ष भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीँ देता हैं? क्या वे इसके अंग नहीँ हैं? थोड़ी-सी अनुपयुक्त सहानुभूति, उत्पीड़न का डर, और लम्बी-जटिल न्यायिक प्रक्रियाओं में समय की बरबादी - इन सवालों का सटीक उत्तर है कि कोई भी उद्योगपति सरकारी तंत्र से पंगा लेने के बजाए रिश्वत देकर अपना काम करवाने में ज्यादा बुद्धिमानी समझता है। भले ही, भ्रष्टाचार से पीड़ित क्यों हो, मगर शिकायत नहीँ करेगा।

एक ऐसा ही दूसरा उदाहरण भी लें। मेडक जिले के कलेक्टर ने एक औद्योगिक इकाई को पेट्रोलियम उत्पाद रखने के लिए अनापत्ति पत्र अर्थात् एनओसी जारी करने में मेरी उनको फोन पर हिदायत देने के बावजूद भी अनावश्यक विलंब किया उसने फाइल पर हस्ताक्षर तभी किए, जब उसे अपना हिस्सा मिल गया। यह जग जाहिर है कि कोई भी बिजनेसमेन प्रतिरोध दिखाने की बजाए घूस देना ज्यादा पसंद करते हैं, क्योंकि उनकी निगाहों में रिश्वत में दी गई धनराशि की तुलना में रेगुलेटरी क्लियरेन्स पाने में लग रहे समय की कीमत कई गुणा ज्यादा होती है। भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारी राजनेताओं से आनन-फानन में संबंध बनाने में माहिर होते हैं।उनका राजनैतिक संरक्षण के कारण उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं होती है, इसलिए वे लगातार इन गतिविधियों में लगे रहते हैं। ऐसे ही एक अधिकारी थे मेडक के कलेक्टर।
जब मैं कमिश्नर नियुक्त हुआ था तब मुख्यमंत्री थे श्री विजय भास्कर रेड्डी। एक साल के भीतर  ही चुनाव होने वाले थे, इसलिए उद्योग विभाग के लिए उनके पास समय नहीँ था। चुनाव हुए। कांग्रेस का सत्ता से सफाया हो गया और दिसम्बर 1994 में भी श्री एन.टी. रामाराव फिर से मुख्यमंत्री बने। जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूँ कि वे नेता कम, अभिनेता ज्यादा थे। उनका ज्यादा ध्यान कल्याणकारी योजनाओं की तरफ था, उद्योग और वाणिज्य विभाग उनकी प्राथमिकताओं में नहीं था।
कुछ समय बाद तेलगु देशम पार्टी में आंतरिक कलह शुरू हुआ। सत्ता की खींचा-तानी होने लगी। सितम्बर 1995 में श्री चंद्रबाबू नायडु आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री बने। श्री नायडु रामाराव के कैबिनेट में वित्त और राजस्व मंत्री हुआ करते थे। उन्हें अर्थशास्त्र के मूल तत्त्व मालूम थे। वे जानते थे कि कल्याणकारी योजनाओं के लिए पैसों की जरूरत होती हैं और पैसे पेड़ पर नहीँ उगते। पैसों को पैदा करने के लिए उद्योग धंधे खोलने तथा उनके निवेश में वृद्धि करना आवश्यक है। उन्होंने सरकार की पुरानी कार्यशैली ही बदल दी और नई कार्यशैली का प्रतिपादन किया। वह एक बहुत परिश्रमी व्यक्ति थे और हमेशा सीखने के लिए तत्पर रहते थे। साथ ही साथ, अपनी आलोचना भी सहज भाव से लेते थे। दूरदर्शिता की भी उनमें कमी नहीँ थी। उनके सक्रिय नेतृत्व में राजनैतिक और नौकरशाही स्तर पर ऐसे ठोस कदम उठाए गए कि देखते-देखते आंध्रप्रदेश पूरी तरह से इन्वेस्टर फ्रेंडलीबन गया।
कोई भी नया प्रोजेक्ट लगाने में पूर्व उद्योगपतियों के लिए सबसे बड़ी बाधा थी, बहुत सारी सरकारी विभागों से स्वीकृति लेना। सभी विभागों के अपने अपने फार्मेट थे, जिनमें उन्हें सूचना देनी होती थी। इन फार्मेटों में बहुत सारी जानकारियाँ की पुनरावृत्ति होती थी। इन स्वीकृतियों के लिए उद्योगपतियों को हर विभाग में जाकर रिश्वत देनी पड़ती थी।
इसलिए यह तय किया गया कि एक कॉमन आवेदन-पत्र तैयार किया जाए, जिसमें सभी विभागों द्वारा चाही गई जानकारियों का समावेश हो। यह आवेदन पत्र उद्योग आयुक्त के कार्यालय में जमा कराने का प्रावधान रखा गया, जो कि नोडल डिपार्टमेन्ट का काम करेगा और सभी विभागों से क्लियरेंस प्राप्त करेगा। शुरू-शुरू में यद्यपि बहुत सारे विभागों ने भरपूर विरोध किया, फिर भी येन-केन प्रकारेण एक कॉमन फॉर्मेट तैयार कर लिया गया। यह भी तय किया गया कि हर विभाग चार हफ्ते के अंदर आयुक्त कार्यालय में अपना क्लियरेंस भेज दें। अनेक विभाग इस प्रक्रिया के पक्ष में नहीं थे,क्योंकि इस वजह से वे उद्योगपतियों के साथ सीधे संपर्क में नहीँ आ पाएंगे। ऐसे में रिश्वत कैसे मिल पाएगी?

इन विभागों ने आवेदन पत्र में गलतियाँ निकालकर चार हफ्ते की समय सीमा समाप्त होने के पहले उसमें संशोधन करने के लिए लौटाना शुरू कर दिया। आयुक्त-कार्यालय को अतिरिक्त सूचना पाने तथा स्पष्टीकरण के लिए उद्योगपतियों से लिखा-पढ़ी करने का अतिरिक्त भार बढ़ गयासिंगल विंडो की जगह एक नई विंडो बन गई
इससे क्लियरेंस मिलने में और ज्यादा देरी होने लगी।समस्याओं का समाधान होने की बजाय उद्योगपतियों के लिए एक अलग आयुक्त रखने से समस्याएँ बढ़ती गई-एक अतिरिक्त कार्यभार के तौर पर ही सही।  फिर से ब्रेन स्टोर्मिंग शुरू की गई। औद्योगिक अनुमोदन के लिए और ज्यादा प्रभावी तरीका खोजा गया। मुख्य सचिव की अध्यक्षता में स्टेट इनवेस्टमेंट प्रमोशन कमेटी बनाई गई। यह कमेटी हर महीने संबंधित सचिवों के साथ बैठक करके लंबित केसों की समीक्षा करती थी इससे विलंब घटाने में काफी फर्क पड़ा।  
श्री नायडु ने अपनी अध्यक्षता में एक स्टेट इन्वेस्टमेंट प्रमोशन बोर्ड का भी गठन किया। इस बोर्ड की बैठक जी हर महीने होती थी और उसमें उन मामलों पर निर्णय लिया जाता था जिनमें विभागों के बीच कोई मतभेद होता था। इन दो शुरूआती कदमों से क्लियरेंस लेने में लगने वाले समय में काफी कमी आई और नीचे स्तर पर होने वाला भ्रष्टाचार भी कम हो गया। धीरे-धीरे उद्योग विभाग की छवि कंट्रोलरसे बदलकर फेसिलिटेटरमें बदल गई और अब निवेश को आगे बढ़ाने के लिए उद्योग आयुक्त मुख्य बिन्दु बन गए।
नवम्बर 1996 में मैं प्रिंसिपल सेक्रेटरी (इंडस्ट्रीज) बना तब तक श्री नायडु की छवि एक मेहनती और दूरदर्शी सीईओ के रूप में उभरकर सामने आ गई थी। श्री तरुण दास के नेतृत्व में कानफ़ेडरेशन ऑफ इंडियन इंस्ट्रीज (सीआईआई) ने आंध्रप्रदेश में निवेश बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।सीआईआई के सौजन्य से दो सफल इनवेस्टमेंट प्रमोशन टूर दक्षिण पूर्व एशिया और अमेरिका में आयोजित किए गए, जिससे आंध्रप्रदेश को खासकर हैदराबाद को मुख्य निवेश स्थान बनाने में काफी  सफलता मिली
यहीं से आंध्रप्रदेश में उद्योग धंधों की स्थापना की नींव पड़ी। आंध्रप्रदेश इंडस्ट्रियल इन्फ्रास्ट्रक्चर कार्पोरेशन के अध्यक्ष श्री आर. चन्द्रशेखर और मुख्यमंत्री कार्यालय के ज्वांइट सेक्रेटरी श्री रदीप सूडान कुशल और मेहनती अधिकारी थे। उन्होंने इन टूरों के सफल आयोजन तथा संचालन में बहुत योगदान दिया। बहुत बड़े-बड़े प्रोजेक्ट जैसे हाइटेक सिटी, हैदराबाद इंटरनेशनल एयरपोर्ट, आंध्रप्रदेश के प्राइवेट पोर्ट, आऊटर रिंगरोड तथा इंडियन बिजनेस स्कूल आदि श्री नायडु के प्रयासों का ही फल था।
 उद्योग विभाग का प्रिंसिपल सेक्रेटरी होने के नाते मैं आंध्रप्रदेश खनिज विकास निगम का चेयरमैन भी था। इस निगम की मुख्य गतिविधि आंध्रप्रदेश में बेराइट का खनन तथा निर्यात करना था। हमने निर्यात करने के लिए निविदा जारी की। इस निविदा के अनुसार माइन स्टॉक यार्ड से बेराइट उठाकर गंतव्य स्थान तक पहुँचाने की सारी जिम्मेदारियाँ ठेकेदारों की थी। निविदा में उस साल बहुत ज्यादा प्रतिस्पर्धा थी, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेराइट की कीमतें आसमान छू रही थी। विगत वर्षों की तुलना में बहुत ज्यादा कीमत ऑफर की गई थी। उच्चतम बोली (एच-1 बिडर)कांग्रेस पार्टी का एक नेता था और दूसरे स्थान पर (एच-2 बिडर)तेलगू देशम पार्टी के पूर्व सांसद। मुख्यमंत्री के ऊपर टेंडर केंसल करने का दबाव था।  
इस विषय पर विचार-विमर्श करने के लिए मुख्यमंत्री ने एक बैठक बुलाई, जिसमें एच-2 बिडर भी मौजूद थे। उन्होंने दलील दी कि एच-1 ग्रेट इतनी अधिक है कि उस पर काम किया ही नहीं जा सकता। ऐसा कहा जा रहा है कि वे ठेके का काम नहीँ कर पाएगा और निगम का सारा निर्यात बाजार बर्बाद हो जाएगा,जिससे राज्य को काफी क्षति पहुँचेगी।  मैंने  कहा,‘‘सर, भले विगत वर्षों की तुलना में निविदा में कुछ ज्यादा कीमत क्वोट की गई है, मगर इस रेट पर भी काम किया जा सकता है। ठेकेदार को भले ही पिछले साल की तुलना में कुछ कम फायदा होगा। अगर मान यह लिया जाए कि इस रेट पर ठेकेदार काम नहीँ कर पाएंगे तो भी निगम के हितों की सुरक्षा के लिए पर्याप्त सिक्योरिटी डिपोजिट जमा है। एच-1 के फेल होने की अवस्था में हम शार्ट टेंडर नोटिस निकाल सकते हैं।दुबारा नया ठेकेदार नियुक्त कर सकते है। मेरे विचार से इस तर्क पर कि एच-1 काम नहीँ कर पाएगा,  उसका टेंडर केंसिल करना उचित नहीं होगा।’’ मुख्यमंत्री को मेरी बात पसंद नहीं आई।
उनके चेहरे पर अंसतोष की लकीरें साफ झलक रही थी। मगर यह उनका बड़प्पन  था कि उन्होंने मेरे ऊपर कोई दबाव नहीँ डाला। वह बात सही है कि एच-1 बिडर की क्वोट की हुई रेट बहुत ज्यादा थी इसलिए वह निर्धारित सही शेड्यूल के अनुसार बेराइट खनिज नहीँ उठा पाया किन्तु बाकी सभी बिडर एच-1 रेट पर स्टॉक उठाने के लिए तैयार हो गए। उस साल निगम को अठारह करोड़ का फायदा हुआ। यह निगम के शुरू होने से लेकर उस समय तक का सबसे ज्यादा फायदा था।

इन 4 सालों में मैंने मुख्यमंत्री श्री नायडू के साथ बहुत नजदीकी से काम किया बहुत सारे महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए। केवल बेराइट के निर्यात वाला एक ऐसा प्रकरण था, जिसमें वह मुझसे थोड़ा-बहुत नाराज हुए थे, मगर उस केस में भी मुझे अपने जजमेन्ट के खिलाफ काम करने के लिए दबाव नहीँ डाला। समय बदल चुका था। परवर्ती वर्ष बिलकुल विपरीत थे। आंध्रप्रदेश के अधिकारियों को अपने जजमेन्ट के खिलाफ निर्णय लेने के लिए बाध्य किया जा रहा था, इस वजह से वे काफी परेशान रहने लगे थे। मुख्यमंत्री श्री नायडु अधिकारियों के बार-बार इधर-उधर स्थानांतरण करने में विश्वास नहीँ करते थे। उनके समय बहुत सारे अधिकारी कई सालों तक अपनी-अपनी जगह पर रहे। मैं स्वयं  उद्योग विभाग में : साल की लम्बी अवधि तक रहा। पहले कमिश्नर के रूप में, फिर प्रिंसिपल सेक्रेटरी के रूप में। इस दौरान मैंने यह देखा कि मीडिया अधिकतर समय सरकारी संस्थाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार को ही उजागर करता है।उनका ध्यान प्राइवेट सेक्टर के करप्शन की तरफ नहीँ जाता था। जबकि प्राइवेट सेक्टर में भी उतना ही या उससे भी ज्यादा भ्रष्टाचार व्याप्त है।
उद्योग विभाग के प्रिंसिपल सेक्रेटरी होने के नाते मैं बांगड ग्रुप की आंध्रप्रदेश पेपर मिल लिमिटेड के बोर्ड का सरकार की तरफ से नामित निदेशक था। सरकार की उसमें 26 प्रतिशत हिस्सेदारी थी। वह आंध्रप्रदेश की सबसे बड़ी पेपर मिल थी।कंपनी का  विस्तार और उसका आधुनिकीकरण शुरू होना था। इस कार्य में काफी कैपिटल इनवेस्टमेंट होना था। बड़े-बड़े आधुनिक संयंत्र उपकरणों की खरीददारी के लिए निविदाएँ आमंत्रित की जा रही थी। उनकी कीमतें विक्रेताओं से पारस्परिक बातचीत करके तय की जा रही थी।
एक शाम बांगड पेपर मिल के वाइस-प्रेसीडेंट (वित्त) श्री सीथारमैया मुझे मिलने मेरे निवास स्थान पर आए। जाते समय उन्होंने एक कैरी बैग टेबल पर छोड़ दिया। इस बैग पर भगवान वेंकटेश्वर की तस्वीर अंकित थी। मैंने सोचा कि उसमें तिरूपति बालाजी का प्रसाद होगा। मैंने बेटी से उसे फ्रीज में रखने के लिए कहा। जैसे ही उसने बैग खोला तो पता चला कि उस बैग में प्रसाद नहीं,रुपयों के बंडल थे। वह सकपकाई निगाहों से मेरी तरफ देखकर बोली,‘‘पापा इसमें तो रुपयों के बंडल रखे हुए हैं।’’ मैं हतप्रभ था।मैंने तुरंत श्री सीथारमैया को फोन लगाया,‘‘आप तुरंत यहाँ आइए और अपना तिरुपति बैग यहाँ से ले जाइए।’’ कुछ ही देर में वो वापस आए और मुझसे माफी मांगी। अपने किए का अफसोस जाहिर किया। यह बात मैं जान सकता हूँ, श्री सीथा रमैया के लिए अपनी कंपनी के उच्चतम अधिकारी की आज्ञा के बिना तो ऐसा कदम कभी नहीँ उठाना संभव नहीं था।
दूसरे ही दिन, मैंने कंपनी के चेयरमैन श्री एल.एम. बांगड को पत्र लिखा कि वे इस घटना की बोर्ड के इंडिपेंडेट डायरेक्टरों की कमेटी द्वारा जाँच करवाएँ। (परिशिष्ट 9-1)
अगली बोर्ड मीटिंग में मैंने श्री सीथारमैया को कंपनी की सेवाओं से हटाने का प्रस्ताव रखा। नौकरी से निकलाने के विरुद्ध श्री सीथारमैया ने आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय में याचिका दर्ज की। उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने घुमावदार तर्कों द्वारा एक प्राइवेट कंपनी को पब्लिक अथॉरिटी घोषित कर उनकी बहाली के आदेश दे दिए। जिस व्यक्ति पर एक सरकारी अधिकारी को रिश्वत देने की कोशिश करने के लिए मुकदमा चलना चाहिए था, उसकी बहाली कर दी गई।

गनीमत है कि कंपनी की एक अपील पर दो जजो की बेंच ने एकल जज के  इस आदेश को निरस्त कर दिया। भ्रष्टाचार पर केवल सरकार का एकाधिकार नहीँ है, वरन् वह हमारे समाज के हर क्षेत्र में  व्याप्त हैं  


Annexure 9-I
22-9-1997
Dear Sri Bangur,  

Mr. Seetharamaiah, Vice-President (Finance) of the A.P. Paper Mills Limited, visited me at my residence. While leaving my  residence,  he  left behind a carry bag containing bundles of Rs. 100 currency notes. Since the carry bag had a picture of Lord Venkateshwara, I thought he had brought prasadam from Tirupati. Soon after he left my residence, my daughter found that the bag contained currency notes.I immediately called Mr. Seetharamaiah at his residence and asked him to come and pick up the money immediately.
He came back to my residence at about 10 pm, and on enquiry, informed that this money was given by the party to whom letter of intent for conversion of FBC boilers was issued. He indicated that this is part amount of the kickbacks for the government directors; a similar amount was paid to the promoter directors.
I am greatly concerned and pained at the entire incident. It is a clear indication of malfunctioning in the company and practice of kickbacks being taken by the officers at various levels from suppliers.
  In the circumstances of the case, I request you to kindly immediately withdraw the letter of intent issued for FBC conversion job, call for an emergency meeting of the Capital Goods Committee, and institute thorough inquiry into the FBC conversion contract.
I would suggest that Mr. D. Subba Rao, nominee Director and Sri Kamalakar, nominee of ICICI, should form an inquiry committee to investigate the entire affair and suggest remedial measures.
I shall be grateful for your immediate response and action.
With regards, Yours Sincerely, 
(P.C. Parakh)
Sri L.N. Bangur
Chairman
A.P. Paper Mills Limited
7, St. George Gate Road
Hastings, Calcutta 700 002







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