8. गोदावरी फर्टिलाइजर्स एवं केमिकल लिमिटेड: एक चतुर सियार बड़ा होशियार

8. गोदावरी फर्टिलाइजर्स एवं केमिकल लिमिटेड: एक चतुर सियार बड़ा होशियार
 
1990, अगस्त महीना। मैं इस कंपनी का मैंनेजिंग डायरेक्टर बना। सरकार ने इस कंपनी को इफको के साथ प्रमोट किया था, काकीनाड़ा में एक उर्वरक संयंत्र बैठाने के लिए। यह संयंत्र डाई अमोनियम फास्फेट का था। इसमें आंध्रप्रदेश सरकार की भागीदारी 26 प्रतिशत, इफको की भागीदारी 25 प्रतिशत तथा 49 प्रतिशत पब्लिक की भागीदारी थी। दूसरी सरकारी उपक्रमों के निदेशक सामान्यतया राजनैतिक पेट्रोनेज से नियुक्त होते हैं,किन्तु जीएफ़सीएल में ऐसा नहीँ था। इसके सभी डायरेक्टर बहुत ही सम्माननीय प्रोफेसर थे। डॉ. एन. भानुप्रसाद (ओएनजीसी के पूर्व चेयरमैन), श्री के.के. पिल्लई (वीएसटी कंपनी के पूर्व मैंनेजिंग डायरेक्टर) आदि। एक अत्यन्त ही उत्कृष्ट अधिकारी श्री एम. गोपाल कृष्ण इस कंपनी के पहले मैंनेजिंग डायरेक्टर बने, इस प्रोजेक्ट के शुरू होने से लेकर चालू होने तक। इफको और राज्य सरकार दोनों मिलकर मैंनेजिंग डायरेक्टर समेत सारे बोर्ड की नियुक्तियाँ करते थेहमेशा यह ध्यान रखा गया कि कंपनी का संचालन किसी सक्षम बोर्ड द्वारा हो।
श्री गोपाल कृष्णन ने प्लांट लगाने के साथ अच्छे अधिकारियों और अच्छे कामगारों की नियुक्ति का श्रेष्ठ कार्य किया। उन्होंने उत्पाद के ब्रांड का एक सुन्दर नाम भी रखा - गोदावरीअत्याधुनिक संयंत्र तो लग गया, मगर कुछ ही समय बाद उसे किसी की नजर लग गई और वह कंपनी एक गंभीर संकट में पद गई। पता नहीँ क्यों, मोरक्को के साथ हमारे देश के संबंध खराब हो गए, इस वजह से डाई अमोनियम फास्फेट यानी डीएपी उर्वरक बनाने के लिए आवश्यक कच्चा माल फास्फोरिक एसिड का आयात अचानक बंद हो गया। मोरक्को की  भारत में फॉस्फोरस एसिड वितरण करने की करीब-करीब मोनोपोली थी। ऐसे समय मैंने यह कंपनी ज्वाइन की। आयातित कच्चे माल की कमी के कारण बहुत कम मात्रा में डीएपी यानि उर्वरक बनाया जा रहा था। इस अवस्था में मैंने अपना सारा ध्यान आयातित फर्टिलाइजर्स की मार्केटिंग की तरफ लगाया। आयात किए गए उर्वरक की मात्रा का निर्धारण बीओएल अर्थात् बिल ऑफ लैंडिंग और सर्वे के आधार पर होती है। भुगतान करने लगे, भले ही, उर्वरक की वास्तविक मात्रा अनलोडिंग के समय थोड़ी-बहुत कम या ज्यादा हो सकती है। अगर वास्तविक मात्रा बीओएल मात्रा से कम निकलती तो हम इंश्योरेंस कंपनी से क्लैम कर सकते हैं और अगर माल ज्यादा निकल जाता है तो वह हमारे लिए बोनस हो जाता और स्वतः ही कंपनी के लाभ में जुड़ जाता है।
कहते हैं कि जो ऊपरी कमाई कमाना चाहे तो वह समुद्री लहरों को गिनकर भी कमा सकता है।ऐसा अकबर-बीरबल के किस्सों में आता है कि एक भ्रष्टाचारी सुरक्षा प्रहरी को अकबर ने हटाकर समुद्र किनारे लहरों को गिनने के लिए लगा दिया। जब कोई जहाज उधर से गुजरता, वहाँ लंगर डालता तो बादशाह का नाम लेकर उनसे घूस कमाने लगा। ऐसा ही कुछ यहाँ भी हुआ
कंपनी द्वारा मंगाए गए अधिकांश शिपमेंटों की मात्रा बीओएलक्यू के आसपास थी। एक शिपमेंट में हमें एक प्रतिशत से भी ज्यादा मात्रा मिली, हमारे चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई। मैंने सोचा, आखिरकार कुछ तो कंपनी को अतिरिक्त लाभ होगा। एक प्रतिशत लाभ भी क्या कम होता है ? मगर ऐसा हुआ नहीँ। कंपनी का मार्केटिंग डिपार्टमेन्ट एक जनरल मैनेजर मैनेजर के अधीन था और, उनके सहयोग के लिए एक चीफ मार्केटिंग मैनेजर नियुक्त किया हुआ था। चीफ मार्केटिंग मैंनेजर बहुत ही बुद्धिमान था,मगर यह मुझे पता न था। कंपनी के मार्केट शेयर बढ़ाने के लिए मैं उस पर बहुत ज्यादा निर्भर करता था कि वह बहुत धूर्त भी था।  
जैसे ही उसे शिपमेंट में ज्यादा मात्रा आने की खबर मिली, समुद्र की लहरें गिनने वाले प्रहरी की तरह वह भी अपने ताने-बाने बुनने लगा। उसने कंपनी के बड़े मार्केट उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के हमारे बड़े विक्रेताओं से साँठ-गाँठ करना शुरू कर दियालखनऊ और भोपाल के हमारे मैनेजरों को अपने षड्यंत्र में शामिल किया। और उनसे मिलकर झूठी रिपोर्ट मंगाना शुरू किया कि आयातित उर्वरक के बोरे में 2 से 3 किलोग्राम कम माल मिल रहा है और उन बोरों का मानकीकरण के लिए अर्थात् 50 किलोग्राम करने के लिए कुछ माल मिलाना पड़ेगा। उसने मेरे पास एक नोट भेजा,जिसमें उसने लिखा कि रवि फसल की बुवाई का काम करीब-करीब खत्म होने जा रहा है। और अगर मानकीकरण के बाद सारा स्टॉक तुरंत खत्म नहीँ किया गया तो हमारे पास अनबिके माल की अगले साल भर के लिए पर्याप्त इंवेंटरी बच जाएगी।
श्री पी. बालासुबह्मण्यम,हमारी कंपनी में महाप्रबंधक (वितरण) थे।उन्हें काकीनाड़ा बंदरगाह पर अनलोडिंग और बैग भरने का काम दिया गया था। वे बहुत ही काबिल और ईमानदार अधिकारी थे। इसके अतिरिक्त,वहाँ काम कर रहे हमारी कंपनी के स्वीडोर एजेंट की रेपुटेशन ही बहुत अच्छी थी, इस वजह से वहाँ गड़बड़ घोटाला होने की आशंका बहुत ही कम थी।मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसी परिस्थिति बनी कैसे? फिर भी मैंने समय की मांग देखते हुए मानकीकरण के आदेश दिए और सारी प्रक्रिया की जाँच करने हेतु हैदराबाद से कुछ अधिकारी उतरप्रदेश और मध्यप्रदेश भेजे
मैंने खुद दो हमारे बड़े विक्रय केन्द्र इलाहाबाद और वाराणसी जाने का तय किया। जब मैं वाराणसी पहुँचा तो चीफ मार्केटिंग मैनेजर मुझे एयरपोर्ट पर मिले। वाराणसी धार्मिक स्थान है। मुझे पहले वहाँ विश्वनाथ मंदिर ले जाया गया, जहाँ आधा दिन तो पूजा-पाठ में ही बीत गया। उसके बाद हम दो डीलरों के गोदामों के निरीक्षण के लिए गए। मेरे सामने कुछ बोरों को तोला गया। सबमें दो-तीन किलोग्राम माल कम निकला। शाम की फ्लाइट से हम लोग इलाहाबाद पहुंचे।अगले दिन सुबह वहाँ के एक डीलर के गोदाम का निरीक्षण किया गया। वहाँ भी तोले गए थैलों में माल  दो-तीन किलोग्राम माल कम था। मन कुछ शंकित लग रहा था। मैं चाहता था कि एक डीलर के गोदाम का निरीक्षण बिना पूर्व सूचना के किया जाए। यहाँ भी सियार की चतुराई रंग लाई। उसने मुझसे कहा,‘‘दूसरा डीलर नदी के उस पार रहता है। उधर जाने के लिए हमें एक तंग-पुल से होकर गुजरना पड़ेगा। तंग-पुल पर अधिकांश समय ट्रैफिक जाम रहता है। अगर हम वहाँ चले भी गए तो आपके फ्लाइट छूटने की संभावना बनी रहेगी।’’

जैसे ही मैं हैदराबाद पहुँचा, वैसे ही श्री सुब्रमण्यम, महाप्रबंधक (वित्त) मुझसे मिले और कहा ,‘‘मेरे एक अधिकारी ने खबर दी है कि आपका दौरा मेनिपुलेट किया गया है। वहाँ न तो बोरों में किसी प्रकार की कमी पाई गई हैं और न ही वहाँ किसी भी प्रकार का मानकीकरण किया जा रहा है। यह एक महज षड्यंत्र" है। चीफ मार्केटिंग मैंनेजर ने अपने एजेंटों और फील्ड स्टॉफ वालों के साथ मिलकर यह योजना बनाई थी।’’
महाप्रबंधक (वित्त) से सारी कहानी सुनने के बाद मेरी आँखों के सामने वाराणसी और इलाहाबाद के सारे दृश्य याद आने लगे। विश्वनाथ मंदिर, पूजापाठ, तंगपुल, पहली पंक्ति में कम वजन वाले बोरे.......सब-कुछ एक-एककर मेरे मानस पटल पर ज्यों के त्यों गुजरने लगे। अब समझ में आया कि मुझे इलाहाबाद के दूसरे डीलरों के निरीक्षण को फ्लाइट छूटने के बहाने रोका गया। अप्रत्यक्ष मुझे गुमराह किया जा रहा था। मन ही मन मुझे अपने आप पर गुस्सा आ रहा था। अपने आपको ठगा हुआ महसूस कर रहा था।
तुरंत मैंने चीफ मार्केटिंग मैनेजर को वापस हैदराबाद बुलाया और उसके बाद मार्केटिंग, डिस्ट्रीब्यूशन और फाइनेंस के महाप्रबंधकों की एक टीम उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश भेजी, सही तथ्यों की खोज करने के लिए। इस टीम ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि उत्तर भारत के बाजार में उर्वरक के सारे बोरों में मात्रा एकदम ठीक थी। किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीँ पाई गई। उन्होंने यह भी लिखा कि चीफ मार्केटिंग मैंनेजर ने दिल्ली के रीजनल मैनेजर, लखनऊ और भोपालऔर  के मैनेजर उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के कंपनी के एजेंटों की मिली भगत से यह साजिश रची गई थी।
साजिश का पर्दाफाश होने के बाद मैंने तुरंत चीफ मार्केटिंग मैंनेजर और दिल्ली,भोपाल और लखनऊ के मैनेजरों को उके उत्तरदायित्वों से अलग करके उनका हैदराबाद ट्रांसफर कर दिया। मैंने इस कमेटी को सारी संक्रियाओं की जाँच करने के आदेश दिए, शिप से उतारने से लेकर नार्थ इंडिया के मार्केट में डीलरों तक उर्वरक पहुँचाने तक की।
मेरे लिए फिर से आत्मावलोकन का पल था। मैं सोच रहा था, जिस तरह से एक चुंबक लोहे के कणों को अपनी तरफ खींचता है ठीक इसी तरह से सीनियर रैंक का एक भ्रष्ट अधिकारी अपने अधीनस्थ सारे अधिकारियों को भ्रष्टाचार की तरफ आकर्षित करता है। यही नहीँ, बहुत ही कम समय में वह किसी संस्थान की सारी सोपानिकी को गलत कार्यों के लिए प्रेरित कर भ्रष्टाचार के सेसपूल की ओर खींच ले जाता है।
मेरा अंतर्द्वन्द्व अभी तक खत्म नहीँ हुआ था। कितने अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही करता, चीफ मार्केटिंग मैनेजर का साथ निभाने के लिए? मेरे इस कदम से कहीँ कंपनी पंगु न हो जाए, इस बात का भी मुझे डर था। क्या करूँ या क्या न करूँ? एक विकल्प यह था कि कंडक्ट रुल्स के तहत औपचारिक जाँच कर दोषी व्यक्तियों को नौकरी से बर्खास्त किया जाए। मगर जाँच की यह प्रक्रिया भी इतनी छोटी नहीँ है। कम से कम छः-सात महीने लग जाएंगे। तब तक क्या मार्केटिंग जैसे महत्त्वपूर्ण पोस्ट को खाली रखा जा सकता है? नहीँ, कदापि नहीँ। तब क्या किया जा सकता था?
दूसरा विकल्प यह था कि- कदाचार में लिप्त अधिकारियों को नोटिस की एवज में तीन महीने की तनख्वाह देकर सीधे नौकरी से हटा दिया जाए। मगर इस विकल्प की भी अपनी सीमाएँ थी। कहीँ वे लोग कानून की शरण न ले लें। कहीँ हाईकोर्ट इस आदेश पर स्टे-आर्डर जारी न कर दें। अगर मामला कोर्ट में चला गया तो बहुत सालों के लिए खीँचा जाएगा। हमें और ज्यादा दिक्कतें होंगी। कुछ भी ठोस निर्णय पर मैं नहीँ पहुँच पा रहा था। अभी तक इस उलझन से उभर भी नहीँ पाया था कि हैदराबाद के अखबारों में मेरे और महाप्रबंधक (वितरण) के खिलाफ आयातित उर्वरक में एक करोड़ की धाँधली करने के आरोप वाली खबर छपी। इस खबर में दो विधायकों ने मुख्यमंत्री से हमारे खिलाफ सीबीआई जाँच करवाने की माँग की थी।  
यह खबर पढ़कर मैं सन्न रह गया। ऐसे घिनौने आरोप, वे भी विधायकों द्वारा! इन विधायकों को न तो मैं जानता था और न ही महाप्रबंधक (वितरण)।कमापनी का काम समझने के लिए  न वे कभी मुझसे मिले और न ही कभी किसी ऑफिसर से।चतुर सियार ने अवश्य यह चाल खेली है। जरूर चीफ मार्केटिंग मैंनेजर ने उन्हें भड़काया होगा, इसलिए सही तथ्यों को जाने बिना उन्होंने यह कदम उठाया है।चीफ मार्केटिंग मैनेजर ने अपनी तरफ से ध्यान हटाने के लिए अपनी कुबुद्धि का प्रयोग किया था। बहुत जल्दी ही यह बात भी समझ में आ गई कि विधायक भी भ्रष्ट आदमियों के हाथों की कठपुतली हो सकते हैं। मैंने कदाचारी अधिकारियों के साथ-साथ विधायकों के खिलाफ कार्यवाही करने का निश्चय किया।  
मैंने बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में एक नोट प्रस्तुत किया जिसमें निम्न बिन्दु थे -
1-       उन विधायकों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के अनुरूप कंपनी और उसके अधिकारियों की प्रतिष्ठा पर आँच लगाने के लिए आपराधिक मुकदमा दायर किया जाए।
2-       उन विधायकों के खिलाफ कचहरी में दस लाख रुपये की मानहानि का दावा ठोका जाए।
इस प्रस्ताव पर बोर्ड पूरी तरह सहमत हो गया, मगर जब कार्यवृत को मुख्य सचिव श्री के.वी.नटराजन ( जो कि कंपनी के एक्स-ऑफिसियो चेयरमैन थे) थे के पास अनुमोदन के लिए भेजा गया तो वे  इससे सहमत नहीं हुए। उन्होंने मुझे निर्देश दिया कि इस बैठक के कार्यवृत्त को श्री विलियम की सलाह लेकर फिर से तैयार किया जाए, क्योंकि वे सरकार की तरफ से बोर्ड का नामित सदस्य है। श्री विलियम ने एक नया कार्यवृत बनाया, जिसमें लिखा गया कि विधायकों के विरुद्ध कार्यवाही चेयरमैन की अनुमति से की जाए। मैं इस कार्यवृत से सहमत नहीं था। इसलिए मैंने सलाह दी कि दोनों कार्यवृत अगले बोर्ड की मीटिंग में रखे जाए ताकि बोर्ड सही निर्णय ले सकें, किंतु श्री नटराजन मेरी सलाह पर भी सहमत नहीँ हुए।

मेरी समझ में नहीं आया कि श्री नटराजन जिन्हें मैं तेज-तर्रार और साहसी अधिकारी के रूप में मानता आया था, आज वह मेरा साथ क्यों नहीँ दे रहे हैं? क्या उन्हें मेरी सत्यनिष्ठा पर किसी प्रकार का संदेह है? मुझे तो आशा थी कि वह उन विधायकों के खिलाफ कार्यवाही करने में मेरी मदद करेंगे, जिन्होंने मेरे ऊपर झूठे और निराधार आरोप लगाए थे। जबकि उन्होंने विलियम को काकीनाड़ा भेजकर स्वतंत्र जाँच करने के आदेश दिए।
श्री विलियम जांच के लिए काकीनाडा गए और उन्होंने मेरे और बालासुब्रमण्यम के खिलाफ कुछ सबूत खोजने की बहुत कोशिश की। मगर उन्हें ऐसा कुछ भी हाथ नहीँ लगा।
नटराजन के आचरण से मैं स्तब्ध था। संशोधित बोर्ड नोट में मुझे चेयरमैन की सलाह पर कानूनी कार्यवाही के लिए अधिकृत किया गया था, मगर जब मैंने उनके अनुमोदन के लिए नोट भेजा तो श्री नटराजन ने उसे अनुमोदित करने की बजाय सरकार की सहमति हेतु आगे प्रेषित कर दिया। उनसे सहयोग की ओर उम्मीद ?  शायद वह अपने ऊपर सत्तारूढ़ पार्टी के विधायकों के खिलाफ आपराधिक मुकदमा दायर करने का दायित्व नहीँ लेना चाहते थे। कंपनी में मेरी कार्यावधि 31 जुलाई 1991 को समाप्त होने जा रही थी, उसके कुछ ही दिन पहले नटराजन सेवानिवृत्त हो गए। उनके कार्यकाल में विधायकों के खिलाफ कार्रवाई करने की अनुमति नहीं मिली।
 इसी बीच मैं ने निर्णय लिया कि जो तीन अधिकारी मानकीकरण के घोटाले में संलिप्त थे। उन्हें तीन अधिकारियों को तीन महीनों के नोटिस देने की एवज में तीन महीने की तनख्वाह देकर टर्मिनेट किया जाए। जैसे ही टर्मिनेशन आर्डर उन दोषी अधिकारियों को दिया गया,वैसे ही उन्होंने स्वयं त्यागपत्र देने की इच्छा व्यक्त की।
मैं भी यही तो चाहता था। तुरंत उनकी बात पर सहमत हो गया। उसके साथ ही इस विषय पर कोई लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने की आशंका ही समाप्त हो गई। नटराजन ने सेवानिवृत्त होने के बाद दलजीत अरोड़ा मुख्य सचिव बने और जीएफ़सीएल बोर्ड के चेयरमैन भी।इसके साथ ही आंध्र प्रदेश सरकार ने  मुझे विधायकों के खिलाफ  आपराधिक मुकदमा दायर करने की अनुमति दे दी।
 मैं कोर्ट में केस फाइल करने वाला ही था कि तत्कालीन मुख्य सचिव श्री दलजीत अरोड़ा ने मुझे सलाह दी, इस विधायक के खिलाफ आपराधिक मुकदमा दर्ज करने से कोई खास फायदा नहीँ होने वाला है। फैसला आने में सालों साल लग जाएंगे और ऐसे भी कुछ भी नहीँ कहा जा सकता है कि ऊँट किस करवट बैठेगा। समय और ऊर्जा लगेगी वह अलग से, फिर यह कोई जरूरी नहीँ कि परिणाम मन मुताबिक आएँगे। उनकी सलाह को ध्यान में रखते हुए मैंने विधायकों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमा दर्ज करने का विचार छोड़ दिया।

 जिस समय मैंने कंपनी छोड़ी, उस समय उसका टर्न अराउंड हो रहा था। उसके सारे संचित नुकसान समाप्त हो चुके थे।कंपनी नुकसान से निकलकर लाभ में आ चुकी थीसारा संचित नुकसान समाप्त हो गया और पहली बार कंपनी ने लाभांश देने की घोषणा की।कंपनी के लाभ में आने से वेतनमान पुनरावृत्ति के लिए श्रमिकों की आशाएँ बढ़ रही थी। मैनेजमेंट के ऊपर दबाव डालने के लिए श्रमिक संगठन ने हड़ताल की घोषणा कर दी। मैनेजमेंट और यूनियन की कई बैठकों के बाद करीब-करीब  सारे मुद्दों पर सहमति हो गई थी। एक मुद्दा जिस पर कोई सहमति नहीं बन पा रही थी,वह कंपनी में अनुशासन के संबंध में था। मारपीट और अनुशासन भंग करने के कारण दो श्रमिकों को,जो यूनियन के पदाधिकारी थे,पूर्व मैनेजिंग डायरेक्टर श्री गोपाल कृष्णन ने बर्खास्त कर दिया था।यूनियन उनकी बहाली पर ड़ी हुई थी।मैं अनुशासन के मामले में कोई समझौता नहीं करना चाहता था
 इस संदर्भ में दो बैठकें तत्कालीन श्रममंत्री श्री पी.जर्नादन रेड्डी के साथ हुई। श्री जर्नादन रेड्डी भी कभी श्रमिक नेता हुआ करते थे। वह स्वयं बर्खास्त कामगारों की बहाली पर जोर देने लगे। मैंने उन्हें उनके गंभीर आरोपों के बारे में बताया। मैंने  उनसे पूछा, ‘‘ यह जानते हुए भी कि उन पर गंभीर प्रकृति के आरोप हैं, फिर भी आप उनकी बहाली पर क्यों आमादा है?’’
उन्होंने कहा, ‘‘मैं जानता हूँ, मगर यह मेरी प्रेस्टीज का सवाल है। अगर राज्य श्रममंत्री होकर दो बर्खास्त कामगारों की बहाली नहीँ करवा सकता हूँ तो श्रमिक लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे कि मेरा श्रममंत्री बनने से उनका फायदा क्या है?’’
प्रत्युत्तर में मैंने कहा, ‘‘श्रममंत्री होने के कारण आपका यह भी दायित्व बनता है कि औद्योगिक इकाइयों में अनुशासन और स्वस्थ कार्य संस्कृति बनी रहे।’’
मगर वह मानने वाले कहाँ थे मेरी बात? वह टस से मस नहीँ हुए। आखिरकार मैंने मुख्यमंत्री को जाकर सारी बात समझाई, तब जाकर वह अपनी जिद्द से हटे। मैंने उन्हें कहा कि मैं श्रमिकों के वेतन में और इजाफा करने के लिए तैयार हूं किंतु अनुशासन के विषय में कोई समझौता करना कंपनी के दूरगामी हित में नहीं होगा।मुख्यमंत्री के हस्तक्षेप के बाद यूनियन ने यह मांग छोड़ दी।श्रमिकों की हड़ताल समाप्त हो गई। हड़ताल के तत्कालीन मैनेजमेंट और यूनियन के बीच के कटु संबंध समाप्त हो गए। वेज सेटलमेंट हो गया। आपसी सम्मान और विश्वास लौट आया। यह विश्वास जीतने में एक बाबू से आईएएस बने श्री बालासुब्रह्मण्यम की महत्ती भूमिका रही। वे मानव संसाधन विभाग के महाप्रबंधक थे। मेरे सेवाकाल में जितने अधिकारियों ने मेरे साथ काम किया, उनमें यही एक मात्र ऐसे इंसान थे जिनकी सत्यनिष्ठा पर पूरी तरह से विश्वास किया जा सकता था। सही अर्थों में, वह एक दुर्लभ इंसान थे, जो ईमानदार होने के साथ-साथ दक्ष और कारगर अधिकारी भी थे। मुझे उनकी सत्यनिष्ठता पर पूरा भरोसा था और जब विधायकों ने उनके खिलाफ मुख्यमंत्री से शिकायत की थी तो मैंने सरकार को लिखा था कि उनकी सत्यनिष्ठता पूरी तरह से विश्वसनीय है और अगर उनके कार्य संपादन में किसी की कमी रह गई है तो उसकी सारी जिम्मेदारी मैं अपने ऊपर लेता हूँ।
साँच को आँच कहाँ! यूनियनों ने अनुशासनहीनता और भ्रष्टाचार के खिलाफ उठाए गए मेरे कठोर कदमों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। कामगारों व अधिकारियों के हौसलें बुलंद हुए। यूनियन और मैनेजमेंट के बीच मधुर संबंध बनने लगे।काकीनाड़ा और हैदराबाद में दिया गया मेरा फेयरवेल अत्यन्त भावुक और हृदयस्पर्शी रहा। हड़ताल से पहले वाला विद्वेष बिलकुल नहीँ था। बड़े सम्मान के साथ अधिकारियों,स्टॉफ ओर यूनियन वालों ने मुझे ‘‘रोल ऑफ ऑनर’’ प्रदान किया था। क्या वह दिन कभी भूला जा सकता!
अनेक खट्टी-मीठी यादों के साथ गोदावरी फर्टिलाइजर्स एवं केमिकल लिमिटेड में मेरी कार्यावधि एक सुकून के साथ पूरी हुई।






























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