4. नागरिक आपूर्ति विभाग : तैलीय पदार्थ

4. नागरिक आपूर्ति विभाग : तैलीय पदार्थ
  मुझे आईएएस की नौकरी करते हुए लगभग एक दशक बीत चुका था। अलग-अलग क्षेत्र में तरह-तरह की अभिज्ञता से मैं परिपक्व होता जा रहा था, मगर मेरे मन में निहित ईमानदारी, कर्तव्य-परायणता और कर्मठता की भावनाएँ मेरे अंतस् को संघर्ष के लिए तैयार करती और शायद मुंशी प्रेमचंद के कहानी नमक का दरोगाके नायक के अंदर मैं अपनी प्रतिच्छाया खोजने लगता,जिसने मुझे ऐसा जीवन जीने के लिए प्रेरित किया। मैं बिलकुल भी सहन नहीँ कर पाता था,अनियमितताओं और भ्रष्टाचार से लिप्त आचार-संहिताओं को। जो देश कभी विश्वगुरु हुआ करता था, आज उसकी ऐसी दुर्दशा? भारतेन्दु हरिश्चंद्र की कविता भारत-दुर्दशाकी कुछ पंक्तियां याद आ जाती थी:-
अंग्रेज़ राज सुख साज सजे सब भारी।
पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख़्वारी।
सबके ऊपर टिक्कस की आफत आई।
हा! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई॥
अंग्रेजों ने देश का शोषण किया, यह बात तो समझ में आती है। मगर हमारे देश के नेता ही हमारी जनता का शोषण करेंगे, यह बात हजम नहीँ हो रही थी।
बीसवीं सदी के आठवें दशक की शुरूआत में देश में आवश्यक सामग्रीअर्थात् ऐसेन्सियल कॉमोडिटीजकी कमी थी। सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली राशन की दुकानों के तहत विदेशों से आयातित पाम ऑयल, पामोलिन और रेपसीड तेल को जनता को आवंटित कर रही थी।
जब मैं आंध्रप्रदेश में नागरिक आपूर्ति विभाग का निदेशक बना, मैंने पाया कि भारत सरकार हमारे राज्य के लिए पामोलीन और रेपसीड ऑयल की बराबर-बराबर मात्रा वितरित कर रही थी। आंध्रप्रदेश के लोग रेपसीड ऑयल (राई का तेल) पसंद नहीँ करते थे, क्योंकि इसकी गंध बहुत तीक्ष्ण होती थी। उत्तर और पूर्व के भारत के हिस्सों में यह पसंद किया जाता था, इसलिए मैंने भारत सरकार को एक पत्र लिखा कि आप आंध्रप्रदेश के लिए रेपसीड तेल का कोटा शून्य कर पामोलिन का कोटा उतना ही बढ़ा दें।
पहला, मेरे अनुरोध के बावजूद भी भारत सरकार ने पाँच हजार टन रेसपीड ऑयल हमारे राज्य के लिए आवंटित कर दिया। पता नहीँ क्यों? खैर, जो भी कारण रहे हो। दूसरा, इस तेल की यहाँ कोई मांग नहीँ थी, मगर मेरे ऑफिस में इस तेल के वितरण हेतु मिल मालिकों की लाइन लग गई। यह बात भी मुझे कुछ समझ में नहीँ आई
मैंने नागरिक आपूर्ति विभाग के तत्कालीन कमिश्नर श्री पी. सीतापथी को एक विस्तृत नोट भेजा, जिसमें यह लिखा था कि यह तेल मिल वालों को उनकी विगत वर्ष की दक्षता या उनकी परिशोधन क्षमता के आधार पर आवंटन कर दिया जाए। कमिश्नर ने उस फाइल पर एक पेज का लंबा नोट लिखा और मेरे पास लौटा दिया।
उस नोट में न तो मेरे प्रस्ताव को स्वीकार किया गया था न ही अस्वीकार। उनकी नोटिंग मेरी समझ से परे थी, इसलिए मैं उनसे सीधे तौर पर बातचीत करने के लिए चला गया। मगर उन्होंने इस विषय पर कुछ भी बातचीत नहीँ की, सिर्फ इतना ही कहा, ‘‘इस फाइल को पेडिंग रहने दो।’’ और फिर टूर पर चले गए। जब कमिश्नर टूर पर थे, मुझे मुख्यमंत्री के सचिव श्री एस. संथानम ने फोन किया,‘‘पारख साहब, तेल आवंटन में इतनी देरी क्यों हो रही है?’’ मैंने प्रत्युत्तर में कहा, ‘‘इस संदर्भ में किसी भी प्रकार का कमिश्नर साहब ने आदेश पारित नहीँ किया है ।’’ सचिव ने फोन पर कहा, ‘‘आप इस फाइल को मेरे पास ले आइए।’’
मैं वह फाइल उनके पास लेकर गया। उन्होंने उस फाइल में लिखा कि तीन मिल मालिकों को यह तेल आवंटित किया जाए, जिनके नाम इस फाइल में लिखे हुए हैं। फाइल लौटाते समय उन्होंने कहा,‘‘मैं चीफ मिनिस्टर का सेक्रेटरी हूँ, न कि सरकार का। जो वह चाहते हैं, वही मैं लिख रहा हूँ। कमिश्नर सरकार के सेक्रेटरी को, अगर उन्हें लगता है कि यह आदेश गलत है तो मुख्यमंत्री से सीधे बातचीत कर सकते है या अपनी सिफारिशें लिखकर इस फाइल को लौटा सकते है।’’
दौरे से जब कमिश्नर साहब लौटे तो मैंने वह फाइल उन्हें पकड़ा दी और उनके सचिव का मौखिक वक्तव्य भी सुना दिया। इसके बाद कमिश्नर ने मुझे अपनी दुविधा बताई ,‘‘मुख्यमंत्री चाहते हैं कि यह तेल केवल तीन मिल मालिकों को मिले, मगर इसके आवंटन के लिए बहुत लोगों ने आवेदन किया है।’’
श्री पी. सीतापथी एक ईमानदार अधिकारी थे और वह अपने हाथ से कोई गलत निर्णय नहीँ लेना चाहते थे। दूसरी तरफ वह मुख्यमंत्री को भी नाराज नहीँ करना चाहते थे। इसलिए मुख्यमंत्री कार्यालय का लिखित अनुदेश पाकर वह अपने आपको कुछ हल्का अनुभव कर रहे थे। इस अनुदेश के अनुसार उन्होंने तेल की समूची मात्रा तीनों मिल मालिकों को आवंटित करने के आदेश जारी कर दिए।
दूसरे दिन क्या हुआ? हाईकोर्ट ने इस आवंटन पर स्टे लगा दिया। जिन मिल मालिकों को तेल नहीँ मिला था, वे हाईकोर्ट जाकर स्टे ले आए। एक महीना ऐसे ही गुजर गया। उसके बाद सारे मिल मालिक एक पत्र के साथ मेरे पास पहुँचे और बोले,‘‘हम प्रो राटा(यथानुपात) बेसिस पर तेल लेने के लिए तैयार है और हाईकोर्ट में दी गई रिट को वापस ले लेंगे।’’
इसी बीच में मैंने पता लगाया कि रेपसीड तेल के आवंटन पर इतनी छीना-झपटी क्यों हो रही है? मुझे पता चला कि जो रेसपीड तेल राशन के जरिए आवंटित किया जा रहा है, उसकी कीमत 6000 प्रति टन है, जबकि कोलकाता बाजार में उसी तेल की कीमत रू. 13000 प्रति टन है। चूँकि आंध्रप्रदेश में इस तेल की डिमांड नहीँ है, इसलिए ब्लैक मार्केट में इस तेल को विशाखापट्टनम बंदरगाह से प.बंगाल में बड़े प्रीमियम पर बेच दिया जाता है।
पर्दे के पीछे का रहस्य खुल गया था। अपनी रिट वापस लेने के बाद उन मिल मालिकों को आनुपातिक आधार पर तेल वितरित कर दिया गया। मगर उन पर नकेल कसने के लिए मैंने एक शर्त अवश्य लगा दी कि जिला वितरण अधिकारी की जांच के बाद ही तेल का फेयर प्राइस शॉप में वितरण के लिए रिलीज किया जाएगा।
पहली बार रेपसीड तेल मिल-परिसरों में पहुँचा। यह हर कोई जानता था कि राशन की दुकानों से रेपसीड तेल खरीदने वाला कोई ग्राहक नहीँ था। कुछ सप्ताह ऐसे ही बीत गए। उसके बाद वे लोग इस तेल को खुले बाजार में बेचने की अनुमति लेने हेतु अभ्यावेदन बनाकर मेरे पास पहुँचे।  
मैंने एक नोट कमिश्नर के पास प्रस्तुत किया।यह लिखते हुए कि राशन की दुकानों से रेपसीड तेल नहीँ बिकने की जानकारी मिल मालिकों को पहले से ही थी, फिर भी ये लोग इस तेल का वितरण करना चाहते हैं। चूँकि यह तेल सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत आवंटित किया गया था, अत: इसे खुले बाजार में बेचने की अनुमति नहीँ दी जा सकती। इस नोट पर हस्ताक्षर करने से पूर्व ही श्री पी. सीतापथी का स्थानांतरण हो गया। नए कमिश्नर के ज्वाइन करने के बाद यह सबसे पहली फाइल थी, जिस पर उन्होंने हस्ताक्षर किए।उन्होंने यह लिखते हुए कि यदि खुले बाजार में तेल बेचने के आदेश नहीं दिए गए तो यह खराब हो जाएगा और लोगों के खाने लायक नहीं रहेगा। इसलिए तेल को खुले बाजार में बेचने की अनुमति दी जाए।अब आप समझ सकते हैं कि नोट पर हस्ताक्षर नहीँ करने के कारण स्थानांतरण और नए प्रभारी का पदभार ग्रहण करते ही सबसे पहले उसी नोट पर हस्ताक्षर करना, किस बात की ओर संकेत करता है। नेताओं के मन मुताबिक काम नहीँ करने पर ईमानदार अधिकारियों को रास्ते का काँटा समझकर दूर फेंक दिया जाता है।  और उनकी इच्छा के अनुरूप कार्य करने पर दक्ष अधिकारी की ऊर्जा प्राप्त करते हैं। सरकार ही नहीँ, जनता भी तो स्वार्थी है। जब-जब उनके स्वार्थों पर कुठाराघात होता है तब-तब प्रभावित लोग इकट्ठे होकर ऐसा खेल खेलते हैं, जिससे स्वत: उनके रास्ते की अड़चन दूर हो जाती है। ब्यूरोक्रेसी के लिए इससे बड़ी विसंगति क्या होगी? दुधारी तलवार पर चलने से कम नहीँ होता है ऐसा कोई निर्णय लेना।
यह बात सही थी कि ज्यादा संग्रहण के कारण यह तेल खराब हो जाता, मगर मिल मालिकों को बेमतलब फायदा पहुँचाने के लिए उन्हें खुले बाजार में बेचने की अनुमति देना बिलकुल गलत था। बल्कि जन-हित के पक्ष में सही विकल्प यह होता कि इस तेल को आंध्रप्रदेश के नागरिक आपूर्ति निगम को ई-ऑक्शन द्वारा बेचने के लिए सुपुर्द कर दिया जाता।
बहुत सालों वाद इस रहस्य पर्दाफाश हुआ। उस समय मैं सरकार के सेल्स टैक्स डिपार्टमेंट में था, आंध्रप्रदेश ऑयल मिलर्स एसोसिएशन के सचिव श्री राजगोपाल ने मुझे बताया कि मिल मालिकों ने तेल आवंटन का आदेश पाने के लिए लाखों रुपये खर्च किए थे और उसे खुले बाजार में बेचने की अनुमति पाने के लिए और भी लाखों रुपये।मुख्यमंत्री बदल चुके थे, असुविधा पैदा करने वाले अधिकारियों के तबादले की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई 

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