21.सिविल सर्विस ,मंत्री और जन-प्रतिनिधि

21.सिविल सर्विस ,मंत्री और जन-प्रतिनिधि
 
 
  सिविल सेवा, और चुने गए जन-प्रतिनिधियों के बीच के आपसी सम्बन्धों का भारत की शासन-प्रणाली में  बहुत महत्त्व है।श्री शिबू-सोरेन के प्रधानमंत्री को मेरे स्थानांतरण के संदर्भ में लिखे पत्र और मेरे उसके प्रत्युत्तर से इस मौलिक विषय पर कई सवाल उठते हैं। यही सवाल कैबिनेट सेक्रेटरी, सांसद, प्रशासनिक अधिकारियों तथा भारत- सरकार के सरकारी  उपक्रमों के अध्यक्ष-सह-प्रबंधक निदेशकों के साथ हुई मेरी अनेक संवाद-शृंखलाओं में भी सामने आए।ये प्रश्न केंद्र या केवल कोल मंत्रालय से ही संबंधित नहीं हैं |ऐसे ही कई मुद्दे समय-समय पर, जब मैं राज्य-सरकार में काम कर रहा था, तब भी उठते रहे हैं, जिसका मैंने इस किताब के भाग-1 में जिक्र किया हैंविगत कई वर्षों से प्रशासनिक अधिकारियों तथा चुने गए प्रतिनिधियों के बीच संबंध बहुत बिगड़  गए हैं या तो पूरी तरह से  विरोधात्मक हैं या फिर मिलीभगत के । जबकि एक अच्छा प्रशासन चलाने के लिए ये संबंध सौहार्द्रपूर्ण तथा सहयोगी होने चाहिए थे । यह भारत की शासन-प्रणाली के कमजोर होने का प्रमुख कारण है। अगर हम गवर्नेंस की गुणवत्ता सुधारना चाहते हैं तो हमें ऐसी संस्थाएं बनानी होगी और उनको पोषित करना होगा, जो राजनेताओं ,चुने गए जन-प्रतिनिधियों तथा प्रशासनिक अधिकारियों के मध्य स्वस्थ और सहयोगी वातावरण प्रदान कर सके ताकि देश के सर्वांगीण हित में कार्य किया जा सके, न कि केवल व्यक्तिगत अथवा किसी विशेष समूह के हितों में। सरकार चाहे लोकतान्त्रिक,समाजवादी, तानाशाही,साम्राज्यवादी या किसी भी प्रकार की क्यों न हो, राज्य के पास नीति-निर्धारण व उनके कार्यान्वयन का केवल एक ही तरीका हैं, वह है सिविल-सर्विस । किसी भी सरकार की दक्षता सिविल सर्विस की प्रतिबद्धता, ईमानदारी और अनुशासन पर निर्भर करती हैं।
सन् 1854 में नार्थ कोर्ट ट्रेवलन रिपोर्ट में ब्रिटिश सिविल सर्विस के लिए तीन मुख्य सिद्धान्त निर्धारित किए गए थे। चूँकि भारतीय संविधान का निर्माण मुख्यतया ब्रिटिश संविधान को ध्यान में रखते हुए किया गया है, अतः भारत में भी वे ही सिद्धांत लागू होते हैं :-
  1. स्थायित्व:- हर चुनाव के बाद सरकार बदलती है किन्तु प्रशासनिक अधिकारी नहीं बदलते ।  वे ही स्थायित्व और अनवरतता लाते हैं ताकि नए मंत्री आसानी से अपना कार्यभार संभाल सके और गवर्नेंस की प्रक्रिया कम से कम बाधित हों। इस व्यवस्था से स्थायी प्रशासनिक  अधिकारी निर्णय लेने और विभागीय कार्यों में विशेषज्ञ हों जाते हैं।  
२- निष्पक्षता:- स्थायित्व इसे आवश्यक बनाता है। प्रशासनिक अधिकारियों को राजनैतिक रूप से निष्पक्ष  रहना चाहिए।  
  ३-अनामत्व :- राजनेता जनता द्वारा चुने हुए होते हैं इसलिए वे निर्णय लेते हैं। वे  सरकारी नीतियों की सफलता या विफलता के लिए जिम्मेदार होते हैं। प्रशासनिक अधिकारियों को gगुमनाम रहना चाहिए। उन्हें अपनी सलाह या नीति-निर्धारण के लिए सार्वजनिक तौर पर जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए।

भारत सरकार के लोकतान्त्रिक ढांचे की प्रशासनिक दक्षता का मुख्य निर्धारक हैं, मंत्रियों और प्रशासनिक अधिकारियों के बीच सौहार्द्रपूर्ण तालमेल। प्रशासनिक अधिकारियों को राजनेताओं की प्रमुखता स्वीकार करनी चाहिए और राजनेताओं को समझना चाहिए कि प्रशासनिक अधिकारियों को नियम कानून के दायरे में काम  करना होता हैं। बिना किसी राजनैतिक झुकाव के ये नियम  देश के हर नागरिक पर समान रूप से लागू  होते हैं। अच्छे शासन के लिए राजनेताओं और  प्रशासनिक अधिकारियों के बीच परस्पर तालमेल और विश्वास होना चाहिए। यह संबंध  बहुत ही नाजुक हैं मगर देश की आजादी के बाद धीरे-धीरे बिगड़ता चला जा रहा है। सन 1975 के आपातकाल के समय इस संबंध पर घातक प्रहार हुआ और साझा (कोलिशन ) सरकार के युग में टूटने की कगार पर आ पहुंचा ।  
 संविधान सभा में बहस:-
देश की आजादी के बाद सरदार वल्लभ भाई पटेल ने राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों के बीच संबंध बनाने के पैमाने निर्धारित किए । सिविल सर्विस से संबंधित आलेखों पर संविधान सभा में बहस में पटेल ने कहा :-
 
एक दक्ष,अनुशासित और संतुष्ट सर्विस, जो अपनी ईमानदारी और कर्मठता(डेलीजेंट) से किए गए कार्यों के आधार पर अपने भविष्य के बारे में आश्वस्त हो,उसकी आवश्यकता लोकतन्त्र में सत्तावादी शासन से भी ज्यादा जरूरी है। यह सर्विस पार्टी से ऊपर होनी चाहिए और हमें सुनिश्चित करना चाहिए कि राजनैतिक  सोच उनकी नियुक्ति और अनुशासन के मामलों में कम से कम हो, अगर उसका पूरी तरह से उन्मूलन नहीं किया जा सकता हैं।
 आज मेरा सेक्रेटरी मेरे विचारों के खिलाफ लिख सकता हैं। मैंने मेरे सारे सेक्रेटरियों को यह आजादी दी हैं। मैंने उनसे कहा हैं,“अगर आप डर के मारे अपनी सलाह ईमानदारी से नहीं देते हों कि कहीं आपका मंत्री नाखुश न हों जाए तो आपको छोड़कर चले जाना चाहिए। मैं दूसरा सेक्रेटरी बुला लूँगा। मैं कभी भी सही सलाह पर नाखुश नहीं होता हूँ।मुझे कहते हुए बिलकुल भी हिचक नहीं हैं कि बहुत सारे अधिकारी जिनके साथ मैंने काम किया है, वे मेरी ही तरह देशभक्त,वफादार और सच्चे हैं। प्रशासनिक अधिकारी शासन के औज़ार हैं, उनके बिना देश में  चारों तरफ अव्यवस्था ही अव्यवस्था नजर आती है। अनुभवों के आधार पर मैं कह सकता हूं कि अपने औजारों के साथ मत खेलो।अपने औजारों के साथ लड़ने वाला  कभी एक अच्छा कामगार नहीं हो सकता है। इसलिए एक बार और हमेशा के लिए सोच लो , आप सर्विस चाहते हों या नहीं ।
 
सौहार्द्र संबंधों की जरूरत :-  
सरदार पटेल के उपरोक्त भाषण में मंत्री और सेक्रेटरी के बीच अच्छे संबंधों के लिए चार मुख्य सिद्धांत नजर आते हैं । सिविल सर्विस रिफार्म पर बनीहोता-समितिने निम्नांकित सिद्धांतों का उल्लेख किया हैं :-
1॰ मंत्री और प्रशासनिक अधिकारी दोनों को कानून और संविधान को ध्यान में रखते हुए अपनी-अपनी भूमिका निभानी चाहिए।एक छोटा-सा उल्लंघन  भी एक अच्छे शासन के लिए ठीक नहीं होता है।
2. मंत्री और सिविल सर्विस के अधिकारियों के बीच विश्वास और एक दूसरे के प्रति आदरभाव होना चाहिए क्योंकि सरकार के उच्चतम-स्तर पर  सौहार्द्र के बिना अच्छा गवर्नेंस असंभव हैं ।
3. सिविल सर्विस के अधिकारियों की सत्यनिष्ठा,निडरता और स्वतंत्रता की रक्षा अच्छे प्रशासन की एक आवश्यक शर्त  हैं। सिविल सर्विस के अधिकारियों का एक महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी होती हैं –“सत्ता से सत्य  कहना।
4. सरकार की नीति निर्माण मंत्री का उत्तरदायित्व होता है। सिविल सर्विस के अधिकारियों को उसे निष्पक्ष व साफ सलाह देनी चाहिए । एक बार नीति बन जाने के बाद सिविल सर्विस के अधिकारियों की ड्यूटी बनती हैं कि इस मामले  में वह अपने विचार नजर-अंदाज कर वफादारी और कर्तव्यनिष्ठा से बनाई गई नीति का संचालन करें ।
 
आजादी के समय पर सिविल सर्विस :-
  आजादी के समय भारत की सिविल सर्विस की गुणवत्ता पर टिप्पणी करते हुए लोक प्रशासन के प्रसिद्ध प्रोफेसर पाल एपलबाय    ने कहा, “ भारत एवं ब्रिटेन में दुनिया की सबसे बेहतरीन प्रशासनिक सेवा  है ।”  इसके विपरीत, हांगकांग की पॉलिटिकल एंड इकनॉमिक रिस्क कंसल्टेंसी ने  2012 में एक रिपोर्ट जारी की,जिसमें भारत की नौकरशाही को एशिया की सबसे खराब नौकरशाही बताया गया है।  
 आजादी के समय भारत में कुशल, ईमानदार और निडर सिविल सर्विस थी और साथ ही साथ उच्च सम्माननीय और सक्षम राजनैतिक नेतृत्व, जिसने  देश को आजाद कराने के लिए महान कुर्बानियाँ दी थीं। मगर हम इस मजबूत नींव पर एक मजबूत भवन नहीं बना पाए।

   पॉलिटिकल सिस्टम का अपक्षय :-
  देश आजाद होने के बाद शीघ्र ही राजनैतिक सिस्टम बिगड़ना शुरू हों गया । महात्मा गांधी ने अपनी प्रार्थना-सभा में एक काँग्रेस कार्यकर्ता का पत्र पढ़ते हुए कहा,
प्रांतों में  जन-प्रतिनिधि व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने के लिए ऊंची-ऊंची बातें करते हैं, मगर वे खुद पूरी तरह से भ्रष्टाचार  में लिप्त हैं। वे लोगों से लाइसेंस के लिए पैसे लेते हैं, ब्लैक-मार्केटिंग करते हैंन्याय के स्रोत को बिगाड़ रहे हैं और प्रशासनिक कार्मिकों के स्थानांतरण करने के लिए जबरदस्ती प्रशासनिक मशीनरी को बाध्य कर रहे हैं ।
 अपनी मृत्यु से कुछ सप्ताह पहले महात्मा गांधी ने अपने मित्र कोंडा वेंकटप्पा का पत्र पढ़ते हुए कहा थाबहुत सारे एम॰एल॰ए॰ और एम॰एल॰सी॰ अपने प्रभाव का प्रयोग कर पैसे बनाते हैं, यहां तक कि क्रिमिनल कोर्ट में न्याय-प्रशासन का भी अवरोध करते हैं । यहां तक कि डिस्ट्रिक्ट-कलेक्टर और अन्य राजस्व-अधिकारियों पर तरह-तरह का दबाव भी डालते हैं। एक सख्त और ईमानदार अधिकारी  स्वतन्त्रता से अपना काम नहीं कर सकता।मंत्रियों के पास उनके बारे में  झूठी रिपोर्टें भेजी जाती हैं।
 पक्षपातपूर्ण रवैया दिन-ब-दिन ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ अधिकारियों के प्रशासन में न केवल व्यवधान डालता हैं वरन उन्हें परेशान भी करता हैं, जो कि अब महामारी में बदल गया हैं , इस प्रकार स्वतंत्रता के तुरंत बाद ही यह महामारी शुरू हों गई थी ।
  सिविल सर्विस का पतन :-
  कुछ समय के लिए सिविल सर्विस अपने बलबूते पर खड़ी रही, मगर ज्यादा समय तक टिक न सकी। अपने एक आलेख में श्री सी॰एस॰ चंद्रा , आई॰सी॰एस॰ ,तत्कालीन सेक्रेटरी, रिहेबीलेशन, भारत सरकार ने लिखा :-  
  “ देश की आजादी के तुरंत बाद सर्विस की नैतिकता में गिरावट आना शुरू हों गई थी।सरदार पटेल,जो गृह-विभाग के प्रभारी थे , एक अकेले नेता थे जिन्होंने जब भी संसद के बाहर और भीतर से इस पर ऊंगली उठी, सर्विस का पक्ष लिया। राजनैतिक मंच से उनका चला जाना, आई॰सी॰एस॰ के लिए मृत्यु-नाद था, जिसका पतन अब साफ दिख रहा हैं । प्रशासन के रोज़मर्रा के काम में  हस्तक्षेप हों रहा हैं। आई॰सी॰एस॰ ऑफिसर जो राजनैतिक दबाव  के आगे झुकने को तैयार हैं, वे अपने सीनियरों से भी आगे निकल जाते हैं । जो इन दबावों का विरोध करते हैं ,उन्हें जान-बूझकर रास्ते से हटा दिया जाता हैं। आई॰सी॰एस॰ में एक नया वर्ग सामने आने लगा है। अपने कामों में समय और ऊर्जा लगाने की जगह उनका मुख्य उद्देश्य अपने मंत्रियों को खुश करना है। सर्विस के कमजोर सदस्यों को इस बात का अहसास हों गया है कि  अब परिश्रम नहीं, बल्कि केवल चमचागिरी प्रमोशन के लिए पासपोर्ट बन गया है।सर्विस के सीनियर सदस्य अपनी सेवानिवृत्ति के बाद एक्सटेंशन या आकर्षक नियुक्ति पाने के लिए  मंत्रियों की जी-हुज़ूरी करने के लिए सदैव तैयार रहते हैं, भले ही, उनकी अपनी अंतरात्मा धिक्कार क्यों नहीं रही हों । इससे  भी ज्यादा गंभीर तथ्य हैं, जिसे मैं बौद्धिक बे-ईमानी कहता हूँ, कि सर्विस के कुछ  सदस्य इतने चतुर  हो गए हैं  कि  मंत्रियों के दिमाग में क्या चल रहा है,उसका पूर्वाभास करके अपने नोट लिखते हैं।“
पंडित   नेहरू के जमाने में नियुक्त कई आयोगों ने उच्च पदों पर  भ्रष्टाचार और भाई-भतीजा वाद की बातें कही थीं और जिसके फलस्वरूप सिविल सर्विस में होने वाले नैतिक पतन के बारे  में भी पता चलता है। खन्ना आयोग जिसमें ओडिशा के मुख्यमंत्रियों तथा मंत्रियों के कदाचार की जाँच के बाद निम्न प्रेक्षण प्रस्तुत किए हैं :-
अधिकारी इन तथ्यों से  अनजान नहीं हों सकते हैं कि उनके  प्रमोशन  तथा भविष्य मंत्रियों कीगुडविलपर आधारित हैं । कितने अधिकारी जन-हितार्थ अपने भविष्य को खतरे में डाल सकते हैं ? बहुत ही कम ऐसे अधिकारी होते हैं जो अपनी कर्तव्य-निष्ठा के कारण लोगों की भलाई के लिए व्यक्तिगत खतरे उठाने के लिए तैयार रहते हैं।  

बिहार मंत्रियों के कदाचार की जाँच करते समय अय्यर कमीशन ने निम्न तथ्यों का पर्दाफाश किया :-
 
नि:संदेह अधिकारियों का कर्त्तव्य है, मंत्रियों के आदेशों का वफादारी और सत्यता के साथ पालन करें, मगर साथ ही उनका यह भी कर्तव्य हैं कि प्रशासन के सर्वमान्य और स्थापित नियमों के अनुरूप साफ-साफ और दृढ़ता  पूर्वक मंत्रियों को सलाह दें । इससे ज्यादा घातक कोई बात नहीं होगी कि प्रशासन-प्रमुख मंत्रियों को सही सलाह देने की जगह उनकी इच्छा अनुसार काम करें ।  यदि सरकार अधिकारियों की नैतिकता की इज्जत नहीं करती हैं  तो सारा प्रशासन पंगु हों जाएगा।“
 
नेहरू ने सिविल सेवाओं को  वैसा समर्थन नहीं दिया जैसा पटेल ने दिया था। नेहरू सिविल सेवा को विकास में अवरोधक समझते थे और कभी-कभी उसकी खुले-आम आलोचना भी करते थे। नेहरू ने उँचे स्तर पर हों रहे भ्रष्टाचार के प्रति ज्यादा गंभीरता नहीं दिखाई । प्रधानमंत्री के राजनैतिक समर्थन के बिना और बढ़ते राजनैतिक भ्रष्टाचार ने सिविल सर्विस  का मनोबल गिराना शुरू कर दिया। सिविल सर्विस के .मूल्यों को पोषण देने तथा राजनैतिक भ्रष्टाचार को रोकने  के लिए पंडित नेहरू के पास कद और काबिलियत दोनों थीं,दुर्भाग्यवश  इन मुद्दों पर उन्होंने  अधिक ध्यान नहीं दिया।
 
आंतरिक आपातकाल और सिविल सर्विस :-
 
सन 1975 में आंतरिक आपातकाल ने राज्य के हर अंग जैसे संसद, न्यायपालिका और सिविल सर्विस पर गंभीर कुठाराघात किया। सिविल-सर्विस केकोर’-मूल्यों जैसे ईमानदारी,निर्भयता ,वस्तुनिष्ठता, निष्पक्षता के बजाए इमरजेंसी में रुलिंग पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता और वफादारी की अपेक्षा की जाने लगी। ऐसे अधिकारी, जो नियमानुसार काम करना चाहते थे, उन्हें परेशान किया गया, सताया गया। राजस्थान कैडर के वरिष्ठ आई॰ए॰एस॰श्री मंगल बिहारी ने राजनैतिक फरमानों की अवमानना करने के कारण उनके साथ हुए दुर्व्यवहार के बारे में लिखा हैं :-
सन 1970 के बीच में केंद्र के राजनेताओं की मुझ पर गाज गिरी , जब दिल्ली में एक बड़ी  रैली का आयोजन किया गया था। दिल्ली  के आस-पास  के राज्यों को भीड़ इकट्ठा करने का कोटा आवंटित किया गया था। राजस्थान को भी ऐसा ही कोटा मिला। उसमें से इलेक्ट्रिसिटी  बोर्ड के 10000 श्रमिकों को ले जाना था। मैं इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड का चेयरमेन था। राजस्थान से आदमी भेजने के काम को देखने के लिए एक कैबिनेट मंत्री को प्रभारी बनाया गया था । 
 राजस्थान में जून आंधियों का महिना होता हैं और बिजली के तार और खंभे गिरते-टूटते रहते है, इसलिए तुरंत ठीक करने के लिए आदमी और ट्रकों को उन जगहों पर भेजने  की होती है। इसलिए केवल राजनैतिक रैली के लिए इतने ट्रक और आदमी भेजना अनुचित था। मैंने ऐसा नहीं किया।  
चूंकि रैली में राजस्थान की उपस्थिति आशा से कम थी, इसलिए मुझ पर सारा दोष मढ़ दिया गया । मेरा तुरंत आर॰ एस॰ई॰बी॰ के चेयरमेन पद से स्थानांतरण कर दिया गया । मुझे मेरे कार्यस्थल पर व्याप्त किसी भ्रष्टाचार ,अव्यवस्था, अदक्षता या और कोई ऐसी गलती निकालकर  बुक करने के लिए एक वरिष्ठ सीबीआई अधिकारी को दिल्ली से भेजा गया । घटनाचक्र में तेज बदलाव तो तब आया ,जब केंद्र सरकार ने मुझे सेवा से डिसमिस  करने  के लिए  राज्य सरकार को निर्देश दिया । यह मैसेज टेलिफोन पर  तत्कालीन मुख्यमंत्री  को दिया गया  । उन्होंने तुरंत  चीफ सेक्रेटरी के पास अनुपालनार्थ नोट  भेज दिया ।
किस तरह मुख्यमंत्री स्तर पर  भी निर्णय लेने की प्रक्रिया मनमानी हो गई,इसके बारे में श्री  टी॰एस॰आर सुब्रमनियन, भूतपूर्व कैबिनेट सेक्रेटरी ने अपनी पुस्तक में लिखा हैं :-
"सर्दी की एक शाम 5 बजे के आस-पास श्री टी॰एन॰ धर मुख्यमंत्री के सेक्रेटरी ने मुझे दिल्ली से फोन किया कि मुख्यमंत्री ने वर्तमान चीफ सेक्रेटरी को हटाने का निर्णय लिया हैं और उनकी जगह कृपा नारायण श्रीवास्तव नए चीफ सेक्रेटरी होंगे । अपरोक्ष-रूप से संजय गांधी ने मुख्यमंत्री को ये  निर्देश दिए थे , बाद में पता चला कि कर्नल आनंद (संजय गांधी के ससुर) कभी गोवा में गैरीसन-कमांडर थे, तब श्रीवास्तव वहां चीफ सेक्रेटरी हुआ करते थे और इसी वजह से संजय गांधी ने यह फरमान जारी किया था ।

इमरजेंसी के बाद सिविल सर्विस पर अपना दृष्टिपात करते हुए वह आगे लिखते हैं :-  
“नई सरकार बनने के बाद इमरजेंसी की ज्यादती को कोसना सबका धंधा बन गया था।  प्रशासन में दल-बदलू बाहर निकलने लगे। जो अधिकारी  इमरजेंसी के उत्साही समर्थक थे, अचानक घोर-विरोधी हो गए।  कौन कहता हैं सिविल सर्विस कठोर और अप्रत्यास्थ होती हैं? अपने हित के लिए  वे शर्मनाक तरीके से गिरगिट की तरह रंग बदल  सकते हैं। "

  सिविल सर्विस की वर्तमान अवस्था :-
  इमरजेंसी के दिनों से अभी तक सर्विस उभर नहीं  पाई है। पूरे भारत में ट्रांसफर और पोस्टिंग ज्यादातर इसलिए की जाती हैं ताकि भ्रष्टाचार तथा कुशासन को छुपाने के लिए सिविल सर्विस राजनेताओं की मुट्ठी में रहे । चीफ सेक्रेटरी तथा कैबिनेट सेक्रेटरी  जो राज्य और केंद्र में सिविल सर्विस का नेतृत्व करते हैं उनका भी राजनैतिक कारणों से निष्प्रयोजन स्थानांतरण कर दिया जाता हैं। इन ऊंचे ओहदों पर भी भ्रष्ट-अधिकारियों की पोस्टिंग कर दी जाती है। इस अवस्था का एक ज्वलंत उदाहरण है, उत्तरप्रदेश में चीफ सेक्रेटरी के पद पर लगातार भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपी अधिकारियों को पद-स्थापित किया जाना, जिन्हें बाद में कोर्ट के आदेश के कारण हटाना पड़ा।  भारत की सिविल सर्विस की दुर्गति पर विलाप करते हुए संविधान के क्रियाकलापों पर राष्ट्रीय आयोग लिखता है:-
 
राजनेताओं द्वारा नियुक्ति , प्रोन्नति और अधिकारियों के स्थानांतरण मनमाने ढंग और प्रश्नवाची तरीकों से करने के कारण सिविल सर्विस की आजादी का नैतिक आधार ही खत्म हों  गया है। इसकी वजह से  नौकरशाही में राजनेताओं के साथ साँठ-गांठ शुरू हो गई है ताकि स्थानांतरण की असुविधा से बच सकें और साथ ही साथ, नेताओं के साथ मिलकर अपनी जेबें भर सकें। वे नियमों  के अनुपालन करने के बजाय केवल नेताओं के आदेशों का अनुसरण करेंगें । परिस्थिति और ज्यादा बिगड़ जाए, इससे पहले संविधान में ऐसे सुधार करना आवश्यक हैं जिनसे सिविल सर्विस अपने दायित्वों के पालन के लिए सक्षम हो सकें।

जब काँग्रेस पार्टी की सरकार केंद्र में और अधिकतम राज्यों में  थी, तभी सिविल सेवाओं में गिरावट आना शुरू हो गई थी,लेकिन कोलिशन सरकारों के आने के बाद यह अधोपतन तीव्रगति से होने लगा । इस बारे में विमल जालान लिखते हैं :-

नौकरशाही का राजनीतिकरण मुख्यतः कम समय  चलने वाली कोलिशन सरकारें हैं,जो लोगों की भलाई के बजाए अपने निजी या पार्टी के हितों को ज्यादा महत्व देती हैं। जो भी पार्टियां शासन में आती हैं, वे लचीले नौकरशाहों को नियुक्त करती हैं। जिनसे  पार्टी के नेताओं के इच्छानुसार अवैध गलत काम किए जा सकें।अगर कोई नौकरशाह बात नहीं मानता हैं  तो उसका तुरंत  दूसरी जगह स्थानांतरण कर दिया जाता हैं।
 
एक अध्ययन के अनुसार केवल  एक साल में  उत्तरप्रदेश में 1,000 आईएएस तथा आईपीएस अधिकारियों के स्थानांतरण किए गए। एक सरकार के समय औसतन  प्रतिदिन 7 स्थानांतरण हुए ।  छह महीने बाद दूसरी सरकार आने पर  स्थानांतरण बढ़कर सात से प्रतिदिन सोलह हों  गए। इस प्रकार आधे से ज्यादा आईएएस अधिकारियों का बारह महीने के भीतर-भीतर स्थानांतरण  कर दिया गया। राजनैतिक व सिविल सर्विस सिस्टम में लगभग छः दशकों से आई गिरावट के परिणामस्वरूप आज सिविल सर्विस में तीन प्रकार के अधिकारी मिलते हैं । पहले, वे जो किसी  राजनैतिक पार्टी या नेता के प्रति अपनी  वफादारी रखते हैं , दूसरे, वे जो समय के अनुसार  गिरगिट की तरह अपनी वफादारी बदल देते हैं  और तीसरी केटेगरी में बहुत कम अधिकारी आते हैं , जो सारी विषम परिस्थितियों के बावजूद भी निष्पक्षता और सत्यनिष्ठा के मानदंडों पर खरे उतरते हैं।
तीसरी केटेगरी वाले अधिकारियों को मंत्री, सांसद और विधायक पसंद नहीं करते हैं। वे उन्हें ब्लैकमेल करते हैं, परेशान करते हैं या फिर सीधे तरीके से महत्त्वहीन काम देकर हाशिए में डाल देते हैं। इस तरह केहरासमेंटसे बचने का कोई संस्थागत तरीका नहीं हैं। अगर ये अधिकारी मंत्रियों की बात नहीं मानते हैं, तो उन्हें न केवल  जो कानूनन मिलना चाहिए, वह भी नहीं मिलता है बल्कि उन्हें कभी-कभी झूठे और निराधार आरोप भी झेलने पड़ते हैं।
पूर्व कैबिनेट सेक्रेटरी श्री टी॰एस॰आर॰ सुब्रमनियन लिखते हैं :-
"अक्सर मुझे राजनेताओं और  वरिष्ठ अधिकारियों के प्रतिशोध  की भावना से निर्दोष अधिकारियों के खिलाफ झूठे और मिथ्या आरोप देखने को मिले हैं। राजनीति से प्रेरित विजिलेन्स जांच तो आसानी से शुरू की जा सकती है। जब एक बार जांच शुरू हो जाती है, तो कोई भी उसे बंद करना नहीं चाहता। कई कारणों से झूठे आरोपों में लगातार बढ़ोतरी हों रही है। केंद्रीय जांच एजेंसियां,जिन्हें अब तक निष्कलंक छबि वाला माना जाता था,भी आजकल इसी रुग्णता से ग्रसित हो गई हैं। केंद्रीय एजेंसियों द्वारा आजकल राजनैतिक आधार पर बहुत ज्यादा झूठे मामले दायर किए जा रहे हैं। जिससे  पूरी व्यवस्था के नष्ट हो जाने की आशंका हैं।
यद्यपि राजनैतिक वातावरण सिविल सर्विस के सदाचार (ईथोस) को पोषित और प्रोन्नत नहीं कर रहा है, मगर इस दुर्गति का कुछ दोष सिविल सर्विस का भी है। यह दुर्भाग्य की बात हैं कि राजनीतिज्ञों द्वारा उनके विरुद्ध अकारण कोई भी अनुशासनात्मक कार्रवाई से बचाने के लिए पर्याप्त संवैधानिक संरक्षण हैं,फिर भी भारत में सिविल सर्विस ईमानदारी तथा राजनैतिक निष्पक्षता के मापदंडों पर  खरी नहीं उतरती है। किसी भी अधिकारी के अपने सिद्धान्त पर अडिग रहने के कारण अगर स्थानांतरण कर दिया जाता हैं तो उसकी जगह लेने के लिए आधे दर्जन से ज्यादा अधिकारी अपने स्वार्थ के खातिर अपने सिद्धांतों से समझौता करने के लिए तैयार मिलेंगे। उच्च अधिकारी सिविल सर्विस में सदाचार तथा आपसी विश्वास को प्रोत्साहन देने में असफल रहे हैं। उनकी इसी कमजोरी का फायदा उठाकर नेता लोग उन्हें निरुत्साहित व कमजोर  करके उनका गलत उपयोग करते हैं।  
राजनेता, नौकरशाहों ,न्यायपालिका में व्याप्त घोर-भ्रष्टाचार और निरुत्साहित सिविल सर्विस  की वजह से भारत धीरे-धीरे कानून-रहित समाजमें बदलता जा रहा है। ऐसा प्रतीत होता हैदेश में कानून का शासन नहीं है। साधारण जनमानस  सरकार को कमजोर, भ्रष्ट तथा अदक्ष  मानने लगा है। अपराधी लोग राजनीति में पहुँच रहे हैं। अगर संसद और राज्यों की असेंबलियाँ इन तत्त्वों को रोकने के लिए अपने दरवाजे मजबूती से बंद नहीं करती हैं  तो शीघ्र ही अपराधी-वर्ग हमारे ऊपर शासन करने लगेगा । मगर राजनैतिक वर्ग हमारे संसदीय-लोकतंत्र पर हो रहे इस हमले पर बिलकुल ध्यान नहीं दे रहा है। बल्कि सुप्रीम कोर्ट और  सिविल सोसायटी द्वारा किए जा रहे राजनैतिक सुधारों के हर प्रयत्न में अवरोध खडे कर रहा है। हमारे विशाल एथनिक और भाषायी विभिन्नता, आर्थिक-विभेदता और पड़ोसी देशों से शत्रुता वाले इस देश, जिसका राष्ट्रीय-एकता और लोकतन्त्र का एक छोटा-सा इतिहास है, के लिए बहुत चिंता की बात है।  
   
अच्छे भविष्य  के लिए:-
  अगर हमें अच्छे शासन  की पुनर्स्थापना करनी है तो हमारे राजनैतिक और सिविल सर्विस प्रणाली दोनों में सुधार लाने  की आवश्यकता हैं। हमारे गवर्नेंस में आएउत्क्रमण’ (aberration) को हटाने के साथ-साथ नए संस्थागत प्रबंधन बनाकर उन्हें पोषित करने की आवश्यकता है ।
राजनेताओं तथा सिविल सर्विस के अधिकारियों की निष्पक्षता, ईमानदारी तथा वस्तुनिष्ठता में कमी आने तथा  उनके बीच पारस्परिक संबंध खराब होने के चार मुख्य कारण हैं:-
1. दोनों के मध्य संबंध तनावपूर्ण होने का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण हैं, राजनेता द्वारा जनहित की कीमत पर अपनी पार्टी के और अपने स्वयं के हितों को प्रमुखता देना तथा प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा निष्पक्षता और कानून के अनुसार काम करने की बाध्यता।     
2. प्रशासनिक अधिकारियों के लिए आचार संहिता है,किन्तु राजनेताओं के लिए कोई आचार संहिता नहीं है। प्रशासनिक अधिकारियों अधिक से अधिक अपने विचार फाइल पर लिख सकते हैं, मगर गलत निर्णय को रोक नहीं सकते। राजनैतिक ताकत के दुरुपयोग को रोकने का  एकमात्र  परिणाम चुनाव में हार है,किन्तु चुनाव पांच सालमें एक बार होता है। इसलिए चुनावी हार कभी भी प्रभावी निवारण नहीं हों सकती है ।
3॰ कभी-कभी  सिविल सर्विस के अधिकारियों तथा उनके पॉलिटिकल मास्टरों की शिक्षा और बुद्धि के  स्तर में काफी अंतर होता हैं  इसलिए कुछ अधिकारियों मेंसुपीरियरीटी काम्प्लेक्सहोता हैं । जबकि कुछ राजनेता अधिकारियों को नीचा दिखाने तथा उनका अपमान करने में आनंद अनुभव करते हैं ।
4. सिविल सोसायटी ग्रुप तथा मीडिया आजकल कुछ ज्यादा सक्रिय हैं तथा कुप्रबंध के खिलाफ लोगों को उत्तेजित करने में काफी सार्थक योगदान दे रहा हैं मगर वे भी  चुने गए प्रतिनिधियों से अच्छे आचरण के लिए दबाव को बनाने में अधिक सफल नहीं हो पाए हैं। आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोग भी चुने जा सकते हैं और मंत्री तक बन सकते हैं ।
   सिविल सर्विस के मूल्यों की पुनर्स्थापना तथा सिविल सर्विस और राजनैतिक एक्जिक्यूटिवों के बीच सौहार्द्रपूर्ण वातावरण बनाने के लिए पहला और सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण कदम है,ऐसी संस्थागत व्यवस्था बनाना,जो सिविल सर्विस की स्वायत्तता, राजनैतिक-निष्पक्षता और सत्यनिष्ठा को फिर से स्थापित कर सके। ऐसा वातावरण बनाने की जरूरत है ,जहां इन गुणों को बढ़ाया जा सके तथा पोषित किया जा सके । ऐसा करने के लिए  दूसरे देशों के अनुभवों का फायदा उठाया जा सकता है।
 
दूसरे देशों में संस्थागत व्यवस्था :-
  आर्थिक तौर पर उन्नत देशों में जापान तथा सिंगापुर ऐसे देश हैं, जहां पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव तथा सिविल-सर्विस के बीच संबंध सबसे ज्यादा सौहार्द्रपूर्ण हैं । दूसरे विश्व-युद्ध के बाद  जापान के कई प्रधानमंत्री पूर्व सिविल सर्वेंट थे। इसी तरह डायट (जापान की संसद) में बहुत सारी सीटों पर पूर्व सिविल सर्वेंट निर्वाचित  होते हैं। दोनों देशों में सिविल सर्विस ने तेजी से आर्थिक विकास करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई हैं तथा उच्च मर्यादा (हाई एस्टीम)  बनाए रखी है।

 दूसरे विश्व-युद्ध के बाद एक तरफ  जापान तथा सिंगापुर तथा दूसरी तरफ भारत में सिविल सर्विस प्रणाली के प्रादुर्भाव में घोर-विरोधाभास दिखाई देता हैं । दूसरे विश्व-युद्ध के बाद जापान में गुणवत्ता वाली नौकरशाही नहीं थी ।कोई खास संस्थागत व्यवस्था  भी नहीं थी,जो सिविल सर्विस केइथोसको आगे बढ़ाए और उन्हें पोषित करें । मगर नेशनल पर्सनल अथॉरिटी के रूप में जापन ने एक ऐसी सशक्त और स्वतंत्र संस्था बनाई, जिसने जापान को दुनिया सबसे अच्छी सिविल सर्विस  दी । जापान की नेशनल पर्सनल अथॉरिटी एक स्वतंत्र निकाय है,जो राजनैतिक रूप से निष्पक्ष हैं और कर्मचारियों की शिकायतों की सुनवाई के साथ-साथ नियुक्ति,प्रोन्नति,सेवा-निवृत्ति,प्रशिक्षण,वेतन,समयावधि,कल्याण,एथिक्स आदि के लिए जबावदेह हैं। इसी तरह जब उपनिवेशवाद से सिंगापुर को आजादी मिली ,तब उसकी सिविल सर्विस अत्यंत भ्रष्ट थी। श्रेय जाता है सिंगापुर की पॉलिटिकल लीडरशिप को ,जिसने उसे दुनिया के सबसे कम भ्रष्ट देशों में से एक बना दिया । इसके विपरीत  भारत जिसमें स्वतंत्रता के समय दुनिया की सर्वश्रेष्ठ सिविल सर्विस थी,   अब सबसे निष्कृष्ट सर्विस हों गई है ।  
 
स्वतंत्र-सिविल सर्विस बोर्ड की स्थापना :-
  जापान की नेशनल पर्सनल अथॉरिटी की तरह हमें bhi एक सिविल सर्विस बोर्ड बनाना चाहिए , ताकि ऐसा वातावरण पैदा किया जा सके जिसमें सिविल सर्विस के सदाचार (इथोस). जैसे राजनैतिक निष्पक्षता ,ईमानदारी और दक्षता को बढ़ाया तथा पल्लवित किया जा सके । यह अत्यंत ख़ुशी की बात हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय तथा राज्य स्तरीय सिविल सर्विस बोर्ड की आवश्यकता को अपने अद्यतन जजमेंट में अनुभव किया है। इस निर्णय पर स्टेक-होल्डरों की ओर से मिश्रित प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई हैं। कुछ लोगों ने यह कहकर इसका स्वागत किया है कि यह  सिविल सर्विस की प्रतिष्ठा (मोरल) को स्थापित करने की तरफ पहला कदम है। दूसरों ने इसे नौकरशाही को राजनैतिक नियंत्रण से मुक्त करने और लोकतान्त्रिक-विचारधारा की हत्या के दृष्टिकोण से देखा हैं ।

लोकतंत्र में पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव की सुप्रीमेसी के बारे में कोई दो राय नहीं हो सकती हैं । सिविल सर्विस बोर्ड का मतलब पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिवों से सिविल सर्विस के नियंत्रण तथा सुपरविजन की शक्तियों का आहरण करना नहीं हैं। उसका मुख्य मकसद सिविल सर्विस को पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिवों की मनमर्जी और उनकी तुनक-मिजाजी से प्रतिरोधित (इन्सुलेट) करना हैं। उत्तर प्रदेश कैडर की युवा आई॰ए॰एस॰ अधिकारी दुर्गाशक्ति नागपाल का निलंबन इस तरह की  मनमर्जी और उनकी तुनक-मिजाजी  का एक ज्वलंत उदाहरण हैं। चीफ सेक्रेटरी इस तरह की गलत कार्रवाई के खिलाफ मुख्यमंत्री को वस्तुनिष्ठ और ईमानदारी पूर्वक सलाह नहीं देने में  असमर्थ रहे,यह सिविल सर्विस के पतन का एक उदाहरण है। इससे ज्यादा बदत्तर अवस्था तो बालू माफिया की यह डींग हांकना  है कि वह एक  आई॰ए॰एस॰ अधिकारी को एक चुटकी  भर  में  निलंबित करवा सकता हैं। इस प्रकार की हरकतों को नियंत्रण में करने के लिए हमें एक स्वतंत्र तथा दृढ़ सिविल सर्विस बोर्ड की आवश्यकता हैं ।
 सिविल सर्विस बोर्ड राजनीति से पूरी तरह मुक्त होना चाहिए और पर्यवेक्षण कैबिनेट द्वारा होना चाहिए। यह बोर्ड ज्वाइंट सेक्रेटरी और उससे ऊपर के अधिकारियों के नौकरी संबंधित सारे मामलों के लिए दायी होगा , जिसमें इंपेनलमेंट,प्रमोशन ,पोस्टिंग ,ट्रान्सफर तथा अनुशासनात्मक कार्रवाई समेत सीबीआई की जांच के आदेश भी शामिल होंगे ।
बोर्ड के सदस्यों का चयन  एक कमेटी द्वारा होना चाहिए जिसके सदस्य प्रधानमंत्री, चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया तथा लोकसभा में विपक्ष  के नेता  हों। पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिवों की सुप्रीमेसी बरकरार रखने के लिए बोर्ड को अपनी सिफारिशों के बारे में अंतिम निर्णय के लिए एसीसी (एपाइंटमेंट कमेटी ऑफ कैबिनेट) को भेजनी होगी।अगर एसीसी इन सिफारिशों से असहमत होती हैं तो उस असहमति के कारण दर्ज होने चाहिए। बोर्ड को संसद को भेजे गए  अपने वार्षिक प्रतिवेदन में इन सारे केसों को शामिल करना चाहिए ।
बोर्ड को प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा उठाए गए विवेक और औचित्य से संबंधित मामलों की सुनवाई करनी चाहिए। इसमें ब्लैकमेल ,डराना-धमकाना, तंग करना और चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा की गई झूठी और दुर्भावनापूर्ण शिकायतें भी शामिल हैं । अगर जरूरत पड़े तो मानहानि(लिबेल) सूट फ़ाइल करने के लिए कानूनन सहायता भी प्रदान करनी चाहिए । ऐसे  ही सिविल सर्विस बोर्ड की स्थापना राज्य सरकार के वरीय अधिकारियों के लिए भी होनी चाहिए ।
 कानून के अंतर्गत सिविल सर्विस के अधिकारियों के कालावधि की सुनिश्चितता : -
  प्रशासनिक अधिकारियों के लिए कम से कम कार्यावधि दो या तीन साल होनी चाहिए । इस अवधि से पहले होने वाले हर ट्रान्सफर के कारण रिकार्ड किए जाने चाहिए और उस अधिकारी को इन कारणों से अवगत किया जाना चाहिए ताकि वह ट्रान्सफर के खिलाफ अपनी बात रख सके ।
 सर्विस-एक्सटेंशन और पोस्ट-रिटायरमेंट एपाइंटमेंट:-
सेवानिवृत्त होने के बाद सेवा-काल बढ़ाने अथवा यू॰पी॰एस॰सी॰,कैट ,रेगुलेटरी अथॉरिटी आदि के चैयरमैन तथा सदस्य बनने की चाह में बहुत सारे वरिष्ठ अधिकारी  नौकरी के अंतिम चरण में अपनी निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता खो देते हैं।सेवा-काल बढ़ाने और सेवानिवृत्ति के बाद काम देने की प्रणाली को खत्म कर दिया जाना चाहिए।

कदाचार पर त्वरित कार्रवाई :- 
  अक्सर यह कहा जाता है कि अनुशासनात्मक कार्रवाई के पूरा होने में दीर्घ विलंब और जॉब सिक्यूरिटी के कारण ट्रान्सफर ही एक प्रभावी साधन है,जिससे सर्विस में अनुशासन बनाया रखा जा सकता है। यह बात भी कुछ हद तक सही है। मगर ट्रान्सफर इस समस्या का हल नहीं हैं। अदक्ष या भ्रष्ट अधिकारियों का एक जगह से दूसरी जगह ट्रान्सफर करने से समस्या का समाधान नहीं हों जाता । समस्या का केवल स्थान  बदल जाता है। प्रस्तावित सिविल बोर्ड को अदक्ष और भ्रष्ट अधिकारियों के सेवा निवृत करने तथा समय सीमा के भीतर अनुशासनात्मक कार्रवाई पूरी करने की विधि-संगत शक्तियां मिलनी चाहिए ।
 
आचार-संहिता
सिविल सर्विस की आचार संहिता :-
भारत में सिविल सर्वेन्ट का आचरण सेंट्रल सिविल सर्विसेस कंडक्ट रूल्स तथा ऑल इंडिया सर्विसेस तथा स्टेट सिविल सर्विसेस के द्वारा बनाए नियमों के अंतर्गत निर्देशित होता है। भारत में कंडक्ट रूल्स में विशेषकरप्रशासनिक अधिकारियों को क्या नहीं करना चाहिए  की लिस्ट है, जबकि इसके ठीक विपरीत ब्रिटिश सिविल सर्विस की आचार-संहिता में सिविल सर्विस कीकोर-वैल्यूपर प्रकाश डाला गया है। ब्रिटिश सिविल सर्विस  की आचार संहिता के कुछ प्रावधान उद्धरणीय हैं:-
  “ एक निष्पक्ष और खुली प्रतिस्पर्धा और गुणवत्ता के आधार पर आपकी नियुक्ति हुई है और आपसे आशा की जाती है कि आप  समर्पण तथा प्रतिबद्धता (कमिटमेंट)  के साथ सिविल सर्विस कीकोर-वैल्यूजसत्यनिष्ठा,ईमानदारी,वस्तुनिष्ठता  और निष्पक्षता के साथ अपनी भूमिका निभाएँगें।”  
  इस कोड में :-
-सत्यनिष्ठता (INTEGRITY) का अर्थ लोगों की सेवा के आभार अपने व्यक्तिगत हितों से ऊपर होने चाहिए।
- ईमानदारी का अर्थ  सत्यता और खुलापन है।
-वस्तुनिष्ठता (OBJECTTIVITY) का अर्थ आपकी सलाह और निर्णय प्रमाणों के ठोस विश्लेषण  पर आधारित होना चाहिए।
-निष्पक्षता का अर्थ हर निर्णय गुणवत्ता के आधार पर तथा अलग-अलग विचारधाराओं वाली सरकार की समान रूप से सेवा।  
  गुड गवर्नेंस के लिए इन  ‘कोर-वैल्यूज को प्रोत्साहन देना आवश्यक है।ये कोर वैल्यूज हमारी  सिविल सर्विस को ऊंचे मुकाम तक पहुँचने में सहायक सिद्ध हो सकती है। इसके द्वारा ही सिविल सर्विस मंत्रियों, सांसदों तथा जनता का आदर और विश्वास पा सकती है।


जहां तक मंत्रियों से संबन्धों का सवाल है, कोड बतलाता है:-
आपको :-
  • : मंत्री को तथ्यों की सही-सही सूचना देना तथा सबूतों के आधार पर विकल्प  बताने के साथ-साथ उचित सलाह देनी चाहिए।
  • : केस पर मेरिट के आधार पर निर्णय लेना चाहिए और विशेषज्ञों एवं प्रोफेशनलों की  सलाह पर पूरा ध्यान देना चाहिए।
  • : सलाह देते या निर्णय लेते समय  असुविधाजनक तथ्यों या संबन्धित विचारों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
  • : एक बार निर्णय ली गई पॉलिसी के कार्यान्वयन में अपनी अनिच्छा के कारण कुंठित करने का व्यर्थ प्रयास नहीं करना चाहिए ।  
  • : अपने सामर्थ्य के अनुसार राजनैतिक निष्पक्षता को बरकरार रखते हुए सरकार की सेवा करना , भले ही वह ,किसी भी पॉलिटिकल धारणा वाली क्यों न हों और  कोड की जरूरी आवश्यकताओं का अनुपालन करना , भले ही, आपकी अपनी पॉलिटिकल विचारधारा या आस्था अलग क्यों न हों।
  • : इस तरह कार्य करें ताकि मंत्री आप पर विश्वास कर सकें और साथ ही साथ यह भी सुनिश्चित करें कि ऐसे ही रिश्ते भविष्य में आने वाले किसी भी सरकार के साथ निभा सकें। 
  • ऐसे कोई कार्य न करें जो पार्टी के राजनैतिक उद्देश्यों के लिए हो या जिससे कार्यालयीन संसाधनों का पार्टी के राजनैतिक फायदे  के लिए उपयोग हो।  
 “अगर आपको अपने काम में कोई परेशानी  है, तो आपको अपने लाइन मैनेजर से बात करनी चाहिए।  अगर किसी कारणवश आपको इस बारे में कुछ कठिनाई होती है, तो आपके विभाग के नामित अधिकारी, जिन्हें कोड  के बारे में स्टाफ को सलाह देने के लिए नियुक्त किया गया है, उनसे संपर्क करें।अगर इसके बाद भी आपको उचित उत्तर नहीं मिलता है तो आप सिविल सर्विस कमिश्नर को लिख सकते हैं। कमिश्नर सीधी शिकायत सुन सकते हैं।
ये प्रावधान सिविल सर्विस कीकोर-वैल्यूजको दृढ़ बनाते हैं और हर स्तर पर अपने उच्च अधिकारियों द्वारा दिए गए अवैध आदेशों को रोकने के लिए अधिकारियों को एक संस्थागत क्रियाविधि प्रदान करते हैं। भारत में सिविल सर्विस कोड में ऐसे ही कुछ सुझाव जोड़ने लायक हैं।
 
पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव तथा जन प्रतिनिधियों के लिए आचार संहिता :-
 
सांसदों तथा विधायकों से सदन के भीतर और बाहर अनुकरणीय आचरण व व्यवहार करने की अपेक्षा की जाती है ताकि संसदीय जीवन के उच्चतम आदर्शों को अक्षुण्ण रखा जा सकें और साथ ही साथ, सदन और उसके सदस्यों की मर्यादा बनी रह सके। उन्हें सामान्य  नागरिकों के अनुकरण के लिए अनुशासित आचरण रखना चाहिए तथा कानून का सम्मान करना चाहिए।
मगर व्यवहार में, संसद और विधानसभा के भीतर और बाहर सदस्यों का आचरण आशा के अनुरूप बिलकुल नहीं है  हमारे प्रतिदिन के संसदीय क्रिया-कलाप ज़्यादातर अराजक, धक्का-मुक्की ,फेंका-फेंकी जैसे गलत व्यवहारों से भरे हुए है। संसद के बाहर भी ज्यादा कुछ लिखने लायक नहीं है। भ्रष्टाचार,हॉर्स-ट्रेडिंग,हफ़्ता-वसूली (extortion), ब्लैकमेल और डराने-धमकाने के आरोप सांसदों तथा अन्य चुने गए प्रतिनिधियों पर लगते रहते हैं।सदन को अपने सदस्यों को कदाचार के लिए सजा देने का अधिकार है, जिसमें चेतावनी, फटकार, निलंबन, निष्कासन और यहाँ तक कि जेल की सजा भी शामिल है। किन्तु भारत की संसद और विधानसभाओं में सदस्यों के अनुशासन और अच्छे आचरण को अपनाने के लिए कई गई कार्रवाइयों के नगण्य  मात्र हैं। संथानम समिति की सिफ़ारिशों के अनुसार केंद्रीय तथा राज्य मंत्रियों के लिए प्रथम आचार संहिता बनाई गई थी। सन 1967 में गृह-मंत्रालय ने विधायकों के लिए एक आचार संहिता तैयार की। इस संहिता में उन सिद्धांतों तथा कन्वेन्शनों को एक जगह लाने का प्रयास किया गया,जिनके द्वारा एक ओर एम॰पी॰ तथा एम॰एल॰ए॰ तथा दूसरी ओर प्रशासनिक अधिकारियों के सम्बन्धों को नियंत्रित करते हैं। संहिता में सभी प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा विधायकों की संविधान के अनुरूप उनके काम करने की हर जरूरत पर सहायता करने का उल्लेख हैं। कोड विधायकों पर  भी कुछ आबन्ध (ओबलीगेशन) लगाता है। उन्हें चाहिए कि वे जनहित या राष्ट्रहित के लिए सूचनाएँ मांगे और व्यक्तिगत केसों जैसे ग्रांट या लाइसेन्स का अनुमोदन, नियुक्ति, प्रोन्नति, ट्रांसफर तथा अनुशासनात्मक कार्रवाई से बचे रहें। उन्हें निजी स्वार्थों या कुछ लोगों को नाजायज फायदा देने के लिए सूचनाएँ नहीं मांगनी चाहिए।

अगस्त 1995 में भारत सरकार को सौंपी गई बोहरा कमिटी की रिपोर्ट ने अपराधी गैंग, पुलिस, नौकरशाहों तथा राजनेताओं की मिली-भगत को उजागर किया है। इस रिपोर्ट पर संसद में बहस हुई और फलस्वरूप सभी पार्टियों की एक मीटिंग गृहमंत्री श्री चव्हाण की अध्यक्षता में बुलाई गई, जिसमें यह निर्णय लिया गया कि विशेषाधिकार (priviledge)  कमेटी से अलग एथिक्स पर एक संसदीय समिति बनाई जाए। मार्च 1997 में राज्य सभा के चैयरमेन द्वारा एथिक्स पर कमेटी बनाई गई। यू॰के॰, फ्रांस, फ़िनलेंड तथा इटली के संसदों के लिए बनाई गई आचार संहिता के अध्ययन करने के बाद कमेटी ने राज्य सभा के सदस्यों के लिए कोड ऑफ कंडक्ट का एक फ्रेम वर्क तैयार किया. मगर सिवाय संसदीय कन्वेन्शन के कोई भी आचार-संहिता भारत में पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव पर आजतक लागू नहीं हुई है।

संसद सदस्यों की आचार संहिता पर कुछ सालों से कई देशों में ध्यान दिया जा रहा है, संस्था तथा इसके प्रतिनिधियों की सार्वजनिक प्रतिष्ठा घोटालों व स्कैंडलों की वजह से  कलंकित हों रही है। संहिता प्रतिदिन के कामकाज में उचित व्यवहार  का मार्गदर्शन करती है। संहिता में ज्यादा  विस्तार से मानक व्यवहारों का उल्लेख किया जा सकता है ताकि सांसदों की इस विषय में  अनिश्चितता को कम किया जा सके। ऐसा करने से जवाबदेही तथा एथिकल निर्णय लेने की नींव रखी जा सकती है। उल्लंघन की अवस्था में अनुशासनात्मक कार्यवाही का ठोस आधार भी बनाया जा सकता है। संहिता जनता को भी उनके प्रतिनिधियों से अपेक्षित मानक व्यवहार के प्रति सचेत कर सकती है, जिससे संसद तथा सांसदों के प्रति लोगों की आस्था बढ़ेगी तथा विधायकों का मार्गदर्शन करने वाले मापदण्डों और प्रतिमानों (नॉर्म्स) का सार्वजनिक प्रदर्शन किया जा सकेगा।कोड ऑफ एथिक्सकी तुलना मेंकोड ऑफ कंडक्टकानूनी और गैर कानूनी गतिविधियों के बारे में ज्यादा सुस्पष्ट होते हैं। किसी आर्गनाइजेशन के मुख्य कार्यों के लिए सामान्य एथिकल आदर्शों की बजाए आचार संहिता ज्यादा  स्पष्ट होती है।
बहुत सारे देश जैसे यू॰एस॰,यू॰के॰,कनाडा,आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैंड ने सांसदों तथा मंत्रियों  के लिए आचार संहिता अपनाई है। इन संहिताओं में मूलभूत सिद्धान्त निम्न है:-
 
नि:स्वार्थ :-  जन कार्यालय धारक अपने निर्णय जन हित के लिए लेंगे। उन्हें अपने , अपने  परिवार तथा अपने मित्रों को वित्तीय या किसी भी तरह की सामग्री का लाभ हों ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए।
सत्यनिष्ठता :- पब्लिक ऑफिस होल्डर को किसी बाहरी व्यक्ति या आर्गनाइजेशन से वित्तीय या और किसी भी तरह का आभार नहीं लेना चाहिए, जो उनकी ऑफिशियल ड्यूटी के निर्वहन को प्रभावित करती हों।
वस्तुनिष्ठता (ओब्जेक्टिविटी) :- पब्लिक ऑफिस होल्डर को सरकारी कामकाज चलाने के लिए हर काम जैसे कि सरकारी अधिकारियों की नियुक्तियाँ, ठेके अथवा अनुदान देना आदि, मेरिट के आधार पर चयन करना चाहिए
उत्तरदायित्व (Accountability) :- पब्लिक ऑफिस होल्डर अपने निर्णयों तथा गतिविधियों के लिए पब्लिक के प्रति जवाबदेह है और अपने आपको ऑफिस से संबंधित किसी भी प्रकार की जांच के लिए प्रस्तुत रखना चाहिए।
पारदर्शिता (ओपननेस) :- पब्लिक ऑफिस होल्डर को अपने सारे निर्णयों तथा अपने कार्य के लिए जितना हों सके,पारदर्शी  रहना चाहिए। उनके सभी निर्णय ऐसे होने होने चाहिए जो जनता को तर्कसंगत लगें।  
ईमानदारी:- पब्लिक ऑफिस होल्डरों की ड्यूटी बनती है कि वे अपने निजी सरोकार, जिनका उनकी पब्लिक ड्यूटी से किसी भी प्रकार का हो सकता है,सार्वजनिक रूप से अनवरत करें और हर काम पब्लिक के हितों की रक्षा को ध्यान में रख कर करें।  
लीडरशिप :- पब्लिक ऑफिस होल्डर को अपने नेतृत्व तथा स्वयं उदाहरणस्वरूप बनकर इन सिद्धांतों को आगे बढ़ाना चाहिए तथा उन्हें संबल करना चाहिए।
 ब्रिटिश संसद ने हाऊस ऑफ कॉमन्स के सदस्यों के आचार-संहिता की विस्तृत रूपरेखा तैयार की है। उसमें आचार-संहिता  के लागू होने के लिए एक विशेष प्रभावी व्यवस्था भी है।हमें भी शासन प्रणाली के अलग-अलग स्तर पर चुने गए प्रतिनिधियों के लिए ऐसी ही आचार संहिता तैयार करनी चाहिए।
 
मंत्रियों के लिए आचार संहिता:-
कुछ देश, विशेष कर यू॰के॰ में मंत्रियों की भी विस्तृत आचार-संहिता है।  प्रक्रिया संबंधी मार्गदर्शी सिद्धान्त से अलग संहिता में पार्टी के हित, निजी-हित, फंड-कलेक्शन तथा मंत्रियों के प्रशासनिक अधिकारियों के साथ संबंधों का भी उल्लेख है। ब्रिटिश मिनिस्ट्रियल कोड के प्रशासनिक अधिकारियों व मंत्रियों  के सम्बन्धों के बारे में एक अध्याय से लिया गया उदाहरण दृष्टव्य है:-
मंत्रियों का यह कर्तव्य है कि कोई भी निर्णय लेने के पहले प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा दी गई निष्पक्ष सलाह तथा सूचना का उचित मूल्यांकन करें। सिविल सर्विस की राजनैतिक निष्पक्षता को बरकरार रखने हेतु प्रशासनिक अधिकारियों को सिविल सर्विस कोड के विरुद्ध या किसी पक्षपातपूर्ण काम के आदेश ना दें। प्रशासनिक अधिकारियों को उन गतिविधियों में शामिल होने के लिए नहीं कहा जाए जिससे उनकी राजनैतिक निष्पक्षता पर उंगली उठे  या जनता को ऐसा लगे कि राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पब्लिक फंड का दुरुपयोग  किया जा रहे है।”
 मंत्रियों को प्रशासनिक अधिकारियों को ऐसे कोई भी निर्देश देने से विवर्जित (debar) किया गया है जिसकी वजह से सिविल सर्विस कोड का उल्लंघन होने की संभावना हो। यह सिविल सर्विस की निष्पक्षता तथा सत्यनिष्ठा बनाए रखने के लिए एक मुफीद प्रावधान है।ऐसी ही आचार संहिता भारत में मंत्रियों के लिए लागू की जानी चाहिए।
 आचार संहिता को लागू करना :-
यदि उचित तरीके से आचार सहिंता लागू की जाती है तो काफी हद तक व्यावहारिक मानकों में सुधार और सिविल सर्विस के अधिकारियों एवं चुने हुए प्रतिनिधियों में निर्धारित मापदंडों पर खरे उतरने की आशा की जा सकती है। किन्तु गलत तरीके से लागू की गई आचार संहिता से नागरिकों में  निराशावाद (cynicism) और अविश्वास के सिवाय कुछ नहीं मिलेगा।
     भारत में सिविल सर्विस के अधिकारियों के लिए विस्तारित आचार-संहिता हैं ,मगर उसका कार्यान्वयन असंतोषजनक हैं। संहिता सिविल सर्विस के अधिकारियों को सर्विस के मामलों में बाहरी प्रभाव को लाने से रोकती हैं, मगर यह सर्वविदित हैं कि सारे स्तरों पर बहुत सारे अधिकारी, सीनियर आई॰ए॰एस॰ और आई॰पी॰एस अधिकारियों समेत लुभावनी पोस्टों को पाने के लिए राजनैतिक प्रभाव का दुरुपयोग करते हैं। नौकरी से संबन्धित  मामलों में  सांसदों और विधायकों के सैंकड़ों पत्र मंत्रियों के पास आते हैं किन्तु किसी भी अधिकारी या संबंधित राजनेता के ऊपर कोई कार्रवाई नहीं  होती  है।
      सिविल सर्विस के अधिकारियों की आचार संहिता प्रभावी ढंग से और निष्पक्ष रूप से लागू की जा सकती है, अगर उसके कार्यान्वयन  का दायित्व एक स्वतंत्र सिविल सर्विस बोर्ड को सौंप दिया जाए। मंत्रियों तथा चुने गए प्रतिनिधियों के लिए आचार संहिता लागू करने के तरीकों पर हम विदेशों में अपनाए गए तरीकों से कुछ सीख सकते हैं। अलग-अलग देशों में तीन विकल्प प्रयोग में लाए गए हैं :-
 1. एक विशेष कानून बनाकर  संसद और विधानसभा से अलग एक बाहरी कार्यान्वयन एजेंसी बनाई जाए। यह एजेंसी सासदों और विधायकों पर आचार-संहिता लागू करेगी,उनके विरुद्ध होने वाली शिकायतों की जांच करके संसद या  विधानसभा को अपनी रिपोर्ट देगी। यह विकल्प कनाडा के कुछ राज्यों में लागू है।
2.  एक प्रस्ताव पारित कर सदस्यों के आचरण देखने के लिए संसद और विधानसभा के भीतर ही एक  निकाय (बॉडी )का निर्माण  किया जाए। संसद या विधान सभा एक कमिश्नर को नियुक्त कर सकती हैं ,जो शिकायतों की जांच करेगा और संसद द्वारा गठित एक समिति को अपनी रिपोर्ट देगा। यह विकल्प यू॰के॰ ने अपनाया  है।
3.  आचार-संहिता के कार्यान्वयन का उत्तरदायित्व संसद कीएथिक्स कमेटीको दिया जाए।  यू॰एस॰ए॰ ने यह विकल्प अपनाया है।
 
भारत के लिए यह वांछित हैं कि मंत्रियों, सांसदों ,विधायकों और अन्य चुने गए प्रतिनिधियों के लिए आचार-संहिता का क्रियान्वयन करने के लिए उचित कानून पारित कर एक स्वतंत्र कमिश्नर की  नियुक्ति की जाए, जो  इस आचार संहिता को सख्ती से लागू कर सके। इससे नागरिकों में सांसदों और विधायकों के प्रति विश्वसनीयता बढ़ेगी ।
 
सौहार्द्रपूर्ण संबंधों की ओर :-
अगर पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव और प्रशासनिक अधिकारी अपने-अपने अधिकारों तथा उत्तरदायित्वों को समझें तथा अपनी सीमाओं का सम्मान करें और अपनी उन सीमाओं के भीतर काम करें तो उनके बीच  सौहार्द्रपूर्ण संबंध स्वतः बन जाएंगे। यदि आचार-संहिता प्रभावी ढंग से लागू की जाती हैं, तो एकाउंण्टेबिलिटी बढ़ेगी। इससे सिविल सर्विस तथा पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव में वांछित व्यावहारिक सुधार लाए जा सकते हैं तथा आपसी विश्वास व सम्मान का वातावरण पैदा किया जा सकता है। अच्छे  प्रशासन के लिए यह आवश्यक  है।
 कर्णधार कौन ? :-  
 कोई भी संस्थागत प्रबंध अपेक्षित परिणाम नहीं दे सकते हैं ,जब तक उस संस्था में काम करने वाले लोग विश्वसनीय, योग्य एवं सत्यनिष्ठ न हों। यहां डॉ॰राजेन्द्र प्रसाद की उस टिप्पणी पर ध्यान देना उचित  होगा, जिसे उन्होंने संविधान सभा द्वारा भारतीय संविधान एडॉप्ट करते समय की थी,
 जो कुछ भी संविधान देता है या नहीं देता है, देश का कल्याण इस पर निर्भर  करेगा कि किस तरह देश में प्रशासन चलाया जाता है। यह उन व्यक्तियों पर निर्भर  करेगा, जो प्रशासन चलाएँगे। अगर चुने हुए प्रतिनिधि योग्य तथा चरित्रवान होंगे तो वे दोषपूर्ण संविधान के बावजूद सुशासन दे सकेंगे।अगर उनमें इन चीजों की कमी है तो संविधान देश की कुछ भी मदद नहीं कर सकता ।




Comments

Popular posts from this blog

साक्षात्कार

20.सुप्रीम कोर्ट,सीबीआई और कोलगेट

18.सांसदों के खेल