2.सब कलेक्टर आसिफाबाद : पहली-पहली अनुभूति

2.सब कलेक्टर आसिफाबाद : पहली-पहली अनुभूति
 
जैसे ही मेरा जिला प्रशिक्षण पूरा हुआ, वैसे ही मेरी पोस्टिंग आदिलाबाद जिले के एक सब-डिवीजन में कर दी गई। सब-डिविजन का मुख्यालय था आसिफाबाद। आबादी रही होगी लगभग सात हजार। इस सब डिवीजन के विधायक एवं पंचायत समितियों के अध्यक्ष काफी शिष्टजन थे। उन्होंने कभी भी प्रशासन में हस्तक्षेप नहीं किया, ही किसी भी प्रकार की गलत मांगें उठाई।
आज भी मुझे अच्छी तरह याद है, जब मैं आसिफाबाद का सब-कलेक्टर बना था, उस समय आदिलाबाद के कलेक्टर हुआ करते थे एक अभिजात्य परिवार से संबंध रखने वाले मुस्लिम अधिकारी   उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान तो मेरी तहसीलों के कार्यों का निरीक्षण किया और ही दौरा। वे आखेट हेतु सिरपुर कागज नगर के अरण्यों में अवश्य आते थे, जो कि मेरे अधिकार-क्षेत्र में आता था। मैं अपने सब-डिवीजन के सारे क्रियाकलाप चलाने में पूरी तरह स्वतंत्र था।  
उनका स्थानान्तरण हो जाने के बाद सब-ऑर्डिनेट रेवन्यू सर्विस के अधिकारी प्रोन्नत्ति पाकर आदिलाबाद के कलेक्टर बने।अपना पद भार ग्रहण करने के तुरन्त उपरान्त जिले के राजस्व अधिकारियों की एक समीक्षा बैठक बुलाई। इस बैठक में उन्होंने सभी अधिकारियों को ईमानदारी से कार्य करने की हिदायत दी। बैठक खत्म होने के बाद जब मैं उनसे औपचारिकतावश मिला तो उन्होंने मेरे सब डिवीजन के प्रस्तावित दौरे के बारे में बताया और मुझे यह भी कहा,‘‘आप अपने तहसीलदार से कह देना कि मेरे दौरे के दौरान किसी भी प्रकार की ज्यादा मेहमाननवाजी करने की कोई जरूरत नहीं हैं।’’
मेरी तीनों तहसीलों के मुख्यालयों में किसी भी प्रकार के अच्छे होटल या रेस्टोरेंट की सुविधा नहीं थी, जहाँ से उच्च अधिकारियों या मंत्रियों के लिए अच्छे खाने की व्यवस्था की जा सकती थी। उस समय किसी वीआईपी विजिट के दौरान खाने के सामानों की व्यवस्था रेवेन्यू इंस्पेक्टर करता था और एक प्रशिक्षित चपरासी खाना तैयार करता था। दौरे पर आये हुये अधिकारियों के साथ उनके निजी सचिव, दफेदार (मुख्य चपरासी) और ड्राइवर हुआ करते थे। कुछ अधिकारी अपने रहने-खाने की सुविधा के लिए अपने महंगाई भत्ते के अनुसार पैसे दे देते थे, मगर कुछ अधिकारी कुछ भी नहीं देते थे।अधिकारियों के आवभगत का सारा खर्च अधिकतर राजस्व अधिकारी के कंधों पर जाता था।
जैसे निर्देश मुझे कलेक्टर ने दिए थे, वैसे मैंने तहसीलदारों को बता दिया। कलेक्टर के पहले दौरे के समय में उनसे मिलने गेस्ट-हाउस गया। शाम को जब उन्हें रात्रि भोज परोसा गया तो देखकर में स्तब्ध रह गया। विविध व्यंजन परोसे गए थे, मैंने मन ही मन सोचा कि ऐसे राजशाही भोज की क्या जरूरत थी? कलेक्टर तो खुद मेहमाननवाजी में ज्यादा खर्च करने के लिए मना कर रहे थे तो तहसीलदार ने ऐसा क्यों किया? मैंने तहसीलदार से पूछा ‘‘जब कलेक्टर साधारण भोजन खाना चाहते थे मेरे कहने के बावजूद भी तुमने राजशाही भोजन की व्यवस्था क्यों कीं?’’ यह मेरी तरफ अभिज्ञता पूर्वक देखकर मुस्कुराते हुए कहने लगा ‘‘सर, 30 साल की नौकरी में मैंने ऐसे ही बाल सफेद नहीं किये हैं। कई कलेक्टरों को खाना खिला चुका हूँ। खाना बनाने से पूर्व हम पता लगा लेते है कि उनकी मनपसंद क्या हैं, फिर खाना तैयार करवाते हैं।’’ मैं यह सुनकर अवाक् रह गया कि किस तरह एक कलेक्टर अपने असली चेहरे को दूसरे मुखौटे से ढकते है और  तहसीलदार अपने तजुर्बे के आधार पर उच्च अधिकारियों की जरूरतों के बारे में समझ लेते हैं मेरे लिए यह एक नयी अनुभूति थी। पहली-पहली अनुभूति जिसमें भ्रष्टाचार के अंकुर फूटने की आशंका दिखने लगी। धीरे-धीरे हमें यह पता चला कि वह कलेक्टर भ्रष्टाचार में पूरी तरह से लिप्त है। पैसा बनाने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते थे, चाहे वह किसी की पोस्टिंग का हो या चाहे किसी के ट्रांसफर का हो,चाहे किसी तरह का लाइसेन्स लेना हो पैसा बनाना ही के जीवन का मुख्य उद्देश्य बन चुका था।
एक दिन ग्राम अधिकारी संघ (विलेज ऑफिसर एसोसिएशन) के पत्र के साथ कलेक्टर की एक चिट्ठी मुझे मिली, जिसमें यह लिखा गया था कि ग्रामाधिकारियों के के वेतन से अनधिकृत कटौती की जा रही है। छानबीन करने पर तहसीलदार ने कहा, ‘‘यह बात एकदम सही है कि ग्रामाधिकारियों के  वेतन से कुछ पैसा काटकर रखा जाता है। यह कटौती मंत्रियों और उच्च अधिकारियों के खर्चों की आपूर्ति के काम आती है। आप चाहें तो इसका सारा हिसाब-किताब मेरे पास है, देख सकते हैं।’’ जब मैंने उसके पास बना हुआ सारा हिसाब-किताब देखा तो यह देखकर हतप्रभ रह गया कि कटौती की हुई धनराशि का अधिकांश हिस्सा कलेक्टर की व्यक्तिगत जरूरतों की पूर्ति में व्यय किया गया था। आदिलाबाद जिले में कागज नगर ही ऐसा शहर था, जिसमें एक अच्छी बेकरी थी। मैंने इस हिसाब-किताब में देखा कि कागज नगर की बहुत सारी पर्चियाँ बेकरी उत्पादों एवं अन्य वस्तुओं की आसिफाबाद के तहसीलदार के नाम कटी हुई थी।
मैंने अपनी छानबीन कर यह रिपोर्ट कलेक्टर को भेज दी, जिसमें वह विशेष टिप्पणी भी दर्ज की - जब तक दौरा करने वाले अधिकारियों/मंत्रियों के आदर-सत्कार का बोझ तहसीलदार के कंधों पर डाला जाएगा, बिना किसी अनुमोदित ऑफिसियल फंड के, तो पैसों की अवैध कटौती का कारोबार ऐसा ही चलता रहेगा। कलेक्टर ने मेरी रिपोर्ट का कोई जवाब नहीं दिया।भले ही,मेरी माँ का जीवन चरित्र मुझे अधोगामी नहीं होने दे रहा था, मगर मन में कहीं कहीं विद्रोह की सूक्ष्म भावना घर करने लगी थी। मैं अपनी शक्ति, सामर्थ्य, अनुशासन, न्याय, संवेदना और भावना जैसी सुकोमल शब्दावली को अपने हृदय-कक्ष में संजोकर अपने आप को तैयार कर रहा था,अनिश्चित भविष्य की अंधेरी गुफाओं में उनकी मशाल बनाकर फूंक-फूंककर कदम रखने की।
मेरे दूसरे कलेक्टर थे श्री आर.के.आर. गोनेला। भारत सरकार में अंडर सेक्रेटरी के पर पर काम करने के बाद अभी-अभी स्टेट कैडर में लौटे थे। पिछले कलेक्टर से एकदम विपरीत। ईमानदार, निष्ठावान और नियम मुताबिक काम करने वाले। एकदम अलग इंसान। आते ही निजी काम के लिए वाहनों पर प्रतिबंध लगा दिया था उन्होंने। नतीजा यह हुआ, आदिलाबाद का ऑफिसर क्लब खाली रहने लगा। क्योंकि किसी भी अधिकारी के पास अपना निजी वाहन नहीं था। उन्होंने कभी स्थानीय तहसीलदारों से अपनी आवाभगत नहीं करवाई। जब कभी बाहर किसी होटल से अपना खाना मंगवाया तो उन्होंने उसके अपने पैसे दिए। काश! हमारे देश में सभी अधिकारी ऐसे हो जाते।
एक बार रिव्यू-मीटिंग के लिए रेवन्यू बोर्ड के एक मेंबर आए जिले के दूसरे सब डिवीजन मुख्यालयनिर्मलमें जिले के सारे राजस्व अधिकारियों की बैठक का आयोजन किया गया। इस बैठक के लंच हेतु कलेक्टर ने सभी भाग लेने वाले अधिकारियों को लंच के लिए अपना-अपना योगदान देने के लिए निर्देश दिए थे ताकि तहसीलदार को खर्च उठाने की जरूरत पड़े।
रेवन्यू बोर्ड के मेम्बर लंच से कुछ समय पहले पहुँचे और अपने कमरे में सीधे चले गए। उन्हें शराब का शौक था और खाने से पहले एक दो पैग जरूर उन्हें चाहिए। एक दो पैग लेने के बाद उन्होंने हमारे साथ लंच किया। लंच में खूब सारे शाकाहारी और मांसाहारी व्यंजन बने थे। लंच लेने के बाद वह सोने चले गए। अपराह्न के बाद उन्होंने रिव्यू-मीटिंग शुरू की, जो मेरे हिसाब से आंधे घंटे से ज्यादा नहीं चली होगी।
कलेक्टर के निजी सचिव बंसीलाल इस व्यवस्था के प्रभारी थे मेम्बर के चले जाने के बाद मैंने बंसीलाल से पूछा, ‘‘बंसीलाल जी, जब कलेक्टर ने कंट्रीब्यूटरी लंच के निर्देश दिए तो आपने ऐसे शाही लंच का आयोजन क्यों किया?’’ बंसीलाल के चेहरे की मुस्कराहट यह साफ बता रही थी मानों उनके लिए यह सवाल निरर्थक था विरक्त होकर वह कहने लगा, ‘‘सर, कलेक्टर साहब नए-नए है। उन्हें प्रैक्टिकल अनुभव नहीं है। उन्हें अपने सीनियर ऑफिसरों से डील करना मालूम नहीं है। मैं जानता हूँ कि श्री सिन्हा को स्कॉच और अच्छा खाना बेहद प्रिय है।
अगर उन्हें स्कॉच और स्वादिष्ट लंच नहीं दिया जाता तो यह रिव्यू-मीटिंग आधी रात तक चलती और एक-एक अधिकारी से ऐसे सवाल पूछे जाते कि उनकी परफोरमेंस की खाल उधेड़ दी जाती। इससे ज्यादा वह और कुछ कहते, मैंने उन्हें चुप रहने के संकेत कर दिए। तहसीलदार और बैठक से संबंधित जिले के विभागों के अधिकारियों से अपने वरिष्ठ अधिकारियों और मंत्रियों के आराम हेतु सुविधा उपलब्ध करवाने की उम्मीद की जाती है। शायद ही ऐसे कुछ वरिष्ठ अधिकारी और मंत्री होंगे,जो अपनी आवभगत पर खर्च हुए पैसों का भुगतान करते होंगे। मुख्यमंत्री और अन्य वरिष्ठ मंत्रियों के दौरे के समय अनेक-अनेक समर्थक और पार्टी मेम्बर बिन-बुलाए मेहमानों की तरह धमकते हैं। उनके खाने-पीने की व्यवस्था के लिए कोई ऑफिशियल बजट नहीं होता है। इसलिए यह देखा गया है कि मुख्यालय में सबसे ज्यादा भ्रष्ट अधिकारी को तहसीलदार बनाया जाता है ताकि वीआईपी लोगों के दौरे के समय उनकी आवाभगत की समुचित व्यवस्था हो सके।
मैं सोच रहा था, क्या यह परंपरा नई-नई शुरू हुई है? ऐसा नहीं हैं। यह परंपरा काफी समय से चली आ रही हैं। देश के आजाद होने से पहले से ही चली रही है। तब कोई क्यों आवाज नहीं उठाता? हम ही शासक बनकर अपनी जनता का शोषण कर रहे हैं। हम सभी अपनी-अपनी जगह भ्रष्टाचार के महायज्ञ में जनता से लूटे हुए धन की आहुति दिए जा रहे हैं। कब तक चलेगा यह सब कुछ, हर कोई जानता हैं देश आजाद हुए 70 साल बीत गए मगर कुछ भी तो परिवर्तन नहीं हुआ। किसी ने भी तो सिस्टम के खिलाफ आवाज नहीं उठायी और हम सभी अधिकारी इस परंपरा को निभाने के आदी हो गये। यही नहीं, सन 1881 में भारतेन्दु हरिश्चंद्र के अपने नाटक-प्रहसन 'अंधेर नगरी' में ऐसी ही तत्कालीन परिपाटी की ओर संकेत किया था ,पाचक चूरन की वक्रोक्ति के माध्यम से। कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं:-
चूरन अमले सब जो खावै,दूनी रिश्वत तुरंत पचावै।
चूरन सभी महाजन खाते,जिससे जमा हजम कर जाते।
चूरन खाते लाला लोग,जिन को अकिल अजीर्ण रोग।
चूरन खावें एडिटर जात,जिनके पेट पचे नहीं बात।
चूरन साहब लोग जो खाता,सारा हिन्द हजम कर जाता।
चूरन पुलिस वाले खाते,सब कानून हजम कर जाते।
ले चूरन का ढेर,बेचा टके सेर।

मेरा कार्यभार संभाले हुए ज्यादा समय नहीं हुआ था,मगर मुझे अपने तहसील में हो रहे छोटे-छोटे भ्रष्टाचार संबंधी जानकारियाँ अवश्य होने लगी। परन्तु मेरे आधे सेवाकाल तक मुझे पता तक नहीं चला कि मेरा ऑफिस भी छोटे-छोटे भ्रष्टाचार की गिरफ्त में चुका था। आसिफाबाद सब-डिवीजन  के सब-कलेक्टर के रूप में मुझे आर्म्स एक्टके अन्तर्गत कुछ हथियारों के लाइसेंस देने के अधिकार आदिलाबाद कलेक्टर द्वारा डेलीगेट किए गए थे।एक दिन एक आदमी मेरे पास शिकायत लेकर आया और बोला,‘‘सर,एक महीना हो गया। मुझे अभी तक मेरी गन का लाइसेंस नहीं मिला।’’
मैंने छानबीन की तो पता चला कि वह फाइल  पन्द्रह दिनों से ऑफिस के टाइपिस्ट के पास पड़ी हुई थी विस्तार से जानकारी करने पर पता चला कि हर आर्म्स लाइसेंस पर 100 रु. वसूल किए जाते थे जो हेड-क्लर्क, डीलिंग क्लर्क, टाइपिस्ट और चपरासी में बाँट लि जाते थे। इस बार टाइपिस्ट उस रिश्वत का ज्यादा हिस्सा लेना चाहता था, मगर दूसरे लोग अपना हिस्सा छोड़ने को तैयार नहीं थे। टाइपिस्ट अपने हिस्से से खुश नहीं था,इसलिए उस फ़ेल को अपने पास पेंडिंग रख लिया।

 उस टाइपिस्ट के खिलाफ रिश्वतखोरी का आरोप सिद्ध नहीं होने के कारण उसके खिलाफसमुचित कार्यवाही नहीं कि जा सकी। और उसको भ्रष्टाचार के कदाचार के अंतर्गत सजा मिलने के बजाय “कार्य कि उपेक्षा/अवहेलना” की साधारण सजा मिली। सरकार के सभी विभागों में इस तरह का संस्थागत भ्रष्टाचार व्याप्त हैं। कौन उसे उखाड़ना चाहेगा? जब सभी को अपना-अपना हिस्सा मिल जाता हैं तो कौन  निरासक्त भाव से निर्मोही होकर पैसों का परित्याग करेगा? घर आती हुई लक्ष्मी को ठुकराने के बारे में कोई सोच सकता है? मनुष्य की लालच-लोभ की प्रवृत्ति उसे भ्रष्टाचार के गर्त में धकेल देती हैं,जो भ्रष्टाचार करने के अनिच्छुक है, वे धीरे-धीरे समय के साथ या तो इससंस्थागत भ्रष्टाचारका हिस्सा बन जाते हैं या फिर उन्हें मुख्य धारा से दूर करके किसी निर्वासित वैतरणी में पटक दिया जाता है ,अपने आपको कोसने के लिए। अक्सर ऐसा भी होता है कि उनके खिलाफ विभागीय अनुशासनात्मक कार्यवाही भी की जाती है, किसी-किसी को जालसाजी के हथकंडों में फँसाने का कुप्रयास भी।
दु:ख इस बात का है कि हमारी आपकी आँखों के सामने देखते,सुनते,अनुभव करते हुए किस तरह भ्रष्टाचार रूपी सुरसा अपना बदन विस्तारित करती चली जाती है,मगर हम कुछ नहीं कर पाते। सोचने लगते है कि कब ऐसा हनुमान आएगा जो इस सुरसा का अंत कर पायेगा? इसका उत्तर समय के गर्भ में अभी भी अनुत्तरित है।


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