13.प्रधानमंत्री के कोयला मंत्रालय का पदभार ग्रहण करना: तीन विशिष्ट सुधार
13.प्रधानमंत्री के कोयला
मंत्रालय का पदभार ग्रहण करना: तीन विशिष्ट सुधार
श्री
सोरेन के इस्तीफा देने पर कोयला मंत्रालय का प्रभार श्री मनमोहन सिंह ने अपने
हाथों में ले लिया। यही उपयुक्त समय था - कोल सेक्टर
में सुधार लाने के लिए। अगस्त 2004 के प्रथम सप्ताह में जब मैं प्रधानमंत्री से ब्रीफिंग के लिए मिला तो मैंने निम्न तीन नीतिगत मुद्दे उनके समक्ष
रखे -
1- वणिज्यिक खनन के लिए कोल सेक्टर की खोलना
2- प्रतिस्पर्धात्मक बोली के जरिए कोल-ब्लॉकों का आवंटन करना
3- नॉन-कोर ग्राहकों को ई-नीलामी के जरिए कोयला बेचना
1- वाणिज्यिक खनन के लिए कोल सेक्टर को खोलना
मैंने प्रधानमंत्री को बताया कि केवल कोल इंडिया हमारे देश में कोयले की बढ़ती मांग की आपूर्ति नहीँ कर पाएगा, इसलिए हमारे लिए अत्यावश्यक हो गया
है कि इस सेक्टर को भी कॉमर्शियल माइनिंग अर्थात् वाणिज्यिक खनन के लिए जल्दी से जल्दी खोला जाए। निजी क्षेत्र के लिए कोल माइनिंग खोलने हेतु कोल माइन्स नेशनलाइजेशन एमेंडमेंट बिल सन् 2000 से संसद में लंबित पड़ा हुआ है। स्टैडिंग कमेटी द्वारा पहले से ही इस बिल को स्वीकार करने के लिए सिफारिश की हुई है
और जितना
जल्दी हो सके इस बिल को कानून में बदलने की जरूरत है।
मैंने प्रधानमंत्री को कैप्टिव माइनिंग की कुछ पैतृक कमजोरियों के बारे में बताया, जो निम्न है -
1- पहला, हम उन उद्योगों को, जिनका कोल माइनिंग से कोई संबंध नहीँ है
और जिनके लिए यह क्षेत्र एकदम नया है और
जिनमें दक्षता भी नहीँ हैं। उन्हें जबरदस्ती इस क्षेत्र में निवेश करने के लिए
बाध्य कर रहे हैं।
2- दूसरा, बहुत सारे मध्यम आकार के उद्योगों को कैप्टिव ब्लॉक देकर
हम छोटी-छोटी खदाने खोलकर इस क्षेत्र के इकोनॉमी ऑफ स्केल और तकनीकी आधुनिकीकरण से होने वाले फायदों से वंचित
रख रहे हैं।
3- कैप्टिव खदानों से निकाला गया कोयला कैप्टिव प्रयोग
में आ रहा है अथवा नहीँ? इसकी निगरानी रखने के लिए हमारे पास कोई व्यवस्था
नहीँ है। बाजार में कोयले के कमी के कारण काला बाजारी बढ़ेगी। परिणामस्वरूप कालाधन और भ्रष्टाचार दोनों बढ़ेंगे।
4- कैप्टिव ब्लॉकों के आवंटन की प्रचलित पद्धति से जिन कंपनियों को कोल-ब्लॉक मिलते है।उनके लिए कोयले की कीमत दूसरे कोयला उपभोक्ताओं के मुकाबले में बहुत
कम पड़ती है, इसलिए यह
पक्षपात पूर्ण नीति है।
प्रधानमंत्री
मेरे सारे तर्कों से सहमत थे, मगर वे जानते थे कि ट्रेड यूनियन और लेफ्ट पार्टी के विरोध के कारण इस विधेयक को कानून में बदलना कठिन होगा। दुर्भाग्य की बात थी जो सरकार घोर राजनैतिक विरोध के बावजूद भी
इंडो-यू.एस. न्यूक्लियर डील और रिटेल मार्केट
में विदेशी निवेश जैसे मामलों में पीछे नहीं हटी,वह सरकार यह
निर्णय नहीं ले सकी,जिसका लेफ्ट पार्टी और ट्रेड यूनियनों
को छोड़कर विरोध नहीं था। यह निर्णय हमारे देश के ऊर्जा क्षेत्र के लिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण था।
अगर 1990 में ही पावर सेक्टर के साथ-साथ कॉमर्शियल माइनिंग भी प्राइवेट सेक्टर के लिए खोल दिया जाता तो आज हमारे देश की रूपरेखा कुछ दूसरी
ही होती। हमारे पास कम से कम छह-सात बड़ी-बड़ी निजी कोल माइनिंग कंपनियाँ होती, ठीक वैसा ही जैसा टेलिकॉम सेक्टर में है। हमारे देश
को कोयले की कमी का इतना विकत सामना नहीं
करना पड़ता और इतनी बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा खर्च नहीँ होती। अगर भारत को अपनी
ऊर्जा की मांगों को पूरा करना हैं तो हमारे यहाँ कम से कम
छह:-सात ऐसी कंपनियाँ हों, जो हर साल 100 मिलियन टन से ज्यादा कोयला उत्पादन करें, न कि सौ ऐसी कंपनियां जो हर साल एक मिलियन टन से पाँच
मिलियन टन कोयला का उत्पादन करें।
2- प्रतिस्पर्धात्मक बोली के जरिए कोल ब्लॉकों का आवंटन -
मेरा
प्रधानमंत्री को दूसरा सुझाव यह था कि कोल ब्लॉक आवंटन की प्रचलित
पद्धति बदलकर उसमें समानता और पारदर्शिता लाकर प्रतिस्पर्धात्मक
बोली के माध्यम से कोल ब्लॉकों का आवंटन किया जाए। इससे आवंटन पद्धति में निष्पक्षता और
पारदर्शिता आएगी। प्रधानमंत्री इस सुझाव पर
तुरंत सहमत हो गए और मुझे इस संदर्भ में पेपर प्रस्तुत करने को कहा।
3- कोयले की ई-मार्केटिंग
कोल इंडिया में कोल माफियाओं का वर्चस्व है। उनके
संरक्षण में कोयले की काला बाजारी भरपूर मात्रा में हो रही थी। इस काला बाजारी को
रोकने के लिए मैंने प्रधानमंत्री से इंटरनेट पर आधारित कोयले की ई-मार्केटिंग शुरू करवाने का प्रस्ताव दिया। काश! हम कोल इंडिया के उत्पादन का 25 प्रतिशत ई-मार्केटिंग करवा पाते।
प्रधानमंत्री ने इस विषय पर भी सहमति प्रदान की। वह
चाहते थे कि पहले एक कंपनी में प्रयोग के रूप में इसे शुरू किया जाए और अगर उसमें
सफलता मिलती है तो इस पद्धति को दूसरी अनुषंगी कंपनियों में लागू किया जा सकता है।भारत में कोयला ऊर्जा का मुख्य स्रोत है और भविष्य
में भी रहेगा। इस सेक्टर में बहुत सारी समस्याएँ है जैसे- भूमि-अधिग्रहण, वन एवं पर्यावरण संबंधित मुद्दे, पुनर्स्थापन, श्रमिकों के साथ संबंध, माफियाओं की भूमिका और कानून व्यवस्था में ढीलापन। इस
सेक्टर के संचालन में ट्रेड यूनियनों, केन्द्रीय मंत्रालयों, राज्य सरकारों के साथ आपसी समन्वय के लिए बहुत राजनैतिक निवेश की आवश्यकता होती है। किन्तु इस विभाग को राजनैतिक नेतृत्व के रूप में वह स्थान और महत्त्व
नहीँ दिया गया, जिसकी इसको जरूरत थी। अधिकतर मंत्रियों ने इस
मंत्रालय का उपयोग अपने या अपनी पार्टी के हितों के लिए ही किया है। इस सेक्टर को सुधारने के लिए किसी ने भी दिल से प्रयास नहीँ किया। इसलिए जब प्रधानमंत्री ने इस विभाग का कार्यभार संभाला तो इस क्षेत्र में सुधार लाने के लिए यह एक अत्यंत उपयुक्त अवसर था
और मैं उसका पूरा फायदा उठाना चाहता था।
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